वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 357
From जैनकोष
मन: प्रीणयित्तुं येषां क्षमास्ता दिव्ययोषित: ।मैत्र्यादय: सतां सेव्या ब्रह्मचर्येप्यनिंदिते ॥357॥
परमब्रह्मचारियों की मैत्र्यादिक की उपासना में समता का उत्कर्ष –जिन मुनियों के आनंदित ब्रह्मचर्य है, प्रशंसनीय ब्रह्मचर्य की साधना है, उन मुनियों के इससे आगे की कुछ ये विशेषताएँ बनें – मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ । ये चार भावनाएँ बनें तो उनकी कषायें शीघ्र नष्ट होती हैं । ये चार प्रकार की भावनाएँ समता की प्राप्ति के लिए हैं । सब प्राणियों में मैत्रीभाव रखना । सब प्राणियों में मित्रता कब रह सकती है ? लोकव्यवहार में भी किसी मित्र से मित्रता कब रहा करती है ? जब मित्र के प्रति समान बुद्धि रखें । यदि दूसरे को अपने से छोटा व बड़ा मानते हैं तो मित्रता नहीं निभती । सबको समान देखें, ऐसे योगी ही सब जीवों के प्रति मित्रता बर्त सकते हैं । तो मैत्रीभाव में समता की ही बात आयी । और फिर दूसरी बात यों देखिये कि मैत्री कहते हैं कि प्राणियों के आत्मा को दुःख उत्पन्न न हो ऐसी अभिलाषा रखना । जो मित्र होता है वह अपने मित्र के प्रति यह हृदय रखता है कि इसे कभी दुःख न हो । किसी दूसरे के दुःख के अभाव की वांछा उसके ही जग सकती है जिसने अपने समान दूसरे को भी समझा है ।
कारुण्य में समता का स्थान –जब कभी किसी प्राणी के प्रति उसका दुःख निरख कर चित्त में ऐसी इच्छा होती है कि इसे दुःख यह न रहे उस काल में अंदर ही अंदर गुप्तरूप से एक उस जीव से बेतार का तार मिला लेना है, तब इच्छा जगती है अर्थात् उसके स्वरूप के समान अपने आपको समझा है तब चित्त में बात उत्पन्न होती कि इसे दुःख न हो । एक मोटी सी ही बात देखो – कोई पुरुष किसी भींत को पीट रहा है, कुदालियां मार रहा है ऐसा निरखकर तो किसी के चित्त में यह बात नहीं आती कि अरे यह पिटे नहीं, और कोई किसी कुत्ते को ही पीट रहा हो तो उसे निरखकर चित्त में करुणा उत्पन्न होती है और अभिलाषा होती है कि इसे पीड़ा न हो । इससे साफ बात है कि भींत में समान बुद्धि नहीं है और उस कुत्ते में मेरा जैसा ही जीवस्वरूप है यह बात भीतर में निर्णीत है तब यह दुखानुत्पत्ति की अभिलाषा जगती है, फिर यहाँ तो परममित्रता की बात है कि सब जीवों में मित्रता का परिणाम हो ।
मोह में परमार्थ मैत्र्यभाव का अभाव –लोग समझते हैं कि घर-घर में तो मित्रता रहती है और मैत्री भाव से कल्याण होता है, कर्म कटते हैं, सो देखो ना, परिजनों में कैसी ही मित्रता है । स्त्री से मित्रता, पुत्र से मित्रता, कुछ जरा सा कष्ट हो जाय तो बड़ी बैचेनी हो जाती है । रात दिन यह भावना करते कि इनको दुःख न हो, इनका दुःख कब मिटे । तो परिजन से, कुटुंब से जो इतनी मित्रता रखी है तो इससे तो मोक्षमार्ग निभ रहा होगा ? सब जीवों में से दो चार जीवों को छाँटकर उनमें मित्रता रखे, उनकी सेवा करे, इसे मोह का चिन्ह बताया है । यह मित्रता नहीं है । सब जीवों के प्रति मित्रता जगे यह भाव एक विशुद्ध ज्ञान में ही संभव है । किसी की कषाय से कषाय मिल गयी और मित्रता बन गयी तो उसका व्यापक विषय तो नहीं रहा । किसी का विरोध कोई रख रहा हो और उसी से विरोध कोई दूसरा रखता हो तो वे दोनों फिर यार बन जाते हैं । यही बात देशों की है, यही बात व्यक्तियों की है । जो विशुद्ध मित्रता के परिणाम को धारण करते हैं वे ध्याता योगीश्वर प्रशंसनीय हैं ।गुणिप्रमोद में समता का उत्कर्ष –दूसरी भावना है प्रमोद । गुणियों को देखकर चित्त में उल्लास उत्पन्न हो जाना, यह भी समता के लिए है । गुणियों को देखकर उल्लास उनके ही हो सकता है जिनको गुणों में प्रेम है । और गुणों के यथार्थ स्वरूप के अवगम के समय कोई सीमित व्यक्ति आधार विदित नहीं होता है अर्थात् गुणपूजा में भले ही किसी व्यक्ति का लक्ष्य करके गुणों की उपासना है पर गुण तो गुणी में रहकर भी "गुणी में रहने वाले गुण" इस दृष्टि से देखने पर गुण का सही स्वरूप अनुभव में नहीं आता । जैसे चैतन्यस्वरूप । कोई पुरुष चैतन्यस्वरूप की भावना करे और इस तरह भावना करे कि हम तो इसके चैतन्यस्वरूप की भावना करते हैं तो चैतन्यस्वरूप की भावना न बनेगी । इस ही दृष्टि के एकांत में ज्ञानाद्वैत ब्रह्माद्वैत निकल आये और वे एकांत यों बन गए कि इस दृष्टि के करने से लाभ लेने का भाव तो छूट गया, पर एक हठ बन गयी कि केवल ज्ञान अथवा चित्स्वरूप यह निर्गुण वही एक तत्त्व है और ये सब मिथ्या हैं, व्यक्तिरूप सत् नहीं माना ।द्रव्यदृष्टि से निरखने में समता की परमार्थ साधारता –द्रव्यदृष्टि में जैनशासन में भी पूर्णस्वरूप कहता है । और उन एकांतियों ने तो एक ब्रह्म है यों माना, पर जिनशासित दृष्टि वाले ध्यातावों ने वह एक है इसका भी खंडन किया, वह एक भी नहीं है । तो अनेक है क्या ? अनेक भी नहीं है किंतु वह तो वही है । केवल एक स्वरूप की उपासना है । एक और अनेक तो व्यक्तित्व को प्रसिद्ध करता है तो गुणों के गुणियों के प्रसंग में जो गुणों में प्रमोद जगता है वह अपने आपके गुणों को छूता हुआ और गुणों से गुणों का अंत:मिलान करता हुआ वह प्रमोद उत्पन्न होता है उसमें भी समतापरिणाम ही आया । यों ही दया में समता मूल निबंधन हैं और मध्यस्थभाव में तो समता शब्द से ही प्रकट है । इस प्रकार समता की भावना में रहने वाले योगीश्वर प्रशंसनीय ध्याता होते हैं ।