वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 363
From जैनकोष
वाअथातीतमाहात्म्या विश्वविद्याविशारदा: ।शरीराहारसंसारकामभोगेषु नि:स्पृहा: ॥363॥
ध्यानसिद्धि के पात्र –जिनका माहात्म्य वचनपथ से अतीत है अर्थात् जिनका महत्व वचनों से प्रकट नहीं किया जा सकता है, जो समस्त विद्याओं में समर्थ हैं और शरीर आहार संसार कर्म भोग इससे निष्पृह हैं वे पुरुष ध्यान सिद्धि के पात्र कहे गये हैं । जो संत सम्यग्ज्ञानी हैं और सम्यग्ज्ञान से संबंध रखकर फिर समस्त विद्याओं के पारगामी हैं वे ही ध्यानसिद्धि के पात्र हैं, क्योंकि ध्यान में मुख्यता है सम्यग्ज्ञान की । किस पर लक्ष्य रखना है, किसके ध्यान से सिद्धि होगी ऐसा जिसे परिचय ही नहीं है वह ध्यान किसका करेगा ? अतएव ध्याता को सर्वप्रथम यथार्थवेक्ता होना ही चाहिए । और फिर यदि कुछ विरक्ति नहीं है तो भी ध्यानसिद्धि नहीं बन सकती । बाह्य पदार्थ जो जहाँ हैं वहीं हैं, हम यहाँ अपने आपमें हैं, हमारे कुछ सोचने के कारण बाह्य पदार्थों में कुछ बन बिगड़ नहीं जाता । हम अपने आपमें ही अपनी कल्पनाओं से अपना सोच विचार किया करते हैं । बाह्यपदार्थों का मुझमें अत्यंताभाव है, फिर उनमें राग क्यों ? ऐसा यथार्थ ज्ञान करके जो पुरुष बाह्य विषयों से निष्पृह हो जाते हैं उनके ध्यान की साधना बनती है ।
शरीर की अरम्यता –यह शरीर भी राग के योग्य नहीं है । यह भी भिन्न पदार्थ है और जो साथ लगा हुआ है यह आनंद देने के लिए नहीं है किंतु संसार में भटकने के लिए और क्लेशयुक्त बनाने के लिए यह साथ लगा हुआ है । इसके राग में आत्मा का कुछ हित नहीं सिद्ध होता है । राग के योग्य है भी क्या शरीर में ? भीतर से बाहर तक सब कुछ दुर्गंधित मल से भरपूर है । इसमें कुछ भी तो सारभूत बात नहीं है । यहाँ राग करना योग्य है ही नहीं । आहार की एक वेदना होती है, क्षुधा हुई है, भूख हुई है, उसका इलाज है आहार । आहार कोई सुख का साधन नहीं है, आहार कोई हितरूप नहीं है, एक किसी स्थिति में वेदना का प्रतीकार है । सो केवल एक भूख मिटाने के लिए आहार किया जाय उसमें तो फिर भी कुछ ईमानदारी है, लेकिन अपने रसीले स्वाद का शौक पूरा करने के लिए जो नाना तरह के व्यंजन बनाते बड़े श्रम से और उनका उपयोग करते हैं और उनके लिए ही चिंतातुर रहते हैं, बड़े बड़े साधन जोड़ने पड़ते हैं, ये तो सब अनर्थ और व्यर्थ की बातें हैं ।विषयसाधनों से आत्मा का अलाभ –एक थोड़ा ऐसा भी ख्याल लायें कि बहुत-बहुत अपने आराम के साधनों में, आहार में, खानपान में कितना खर्च किया होगा अब तक । जिनको पान, बीड़ी, सिगरेट आदिक का शौक है, बड़े जेब-खर्च बढ़े हुए हैं उनकी ये सब व्यर्थ की बातें हैं । सनीमा देखने में 2) खर्च कर दिया तो उससे क्या लाभ हुआ ? अरे 2) से तो तीन चार आदमियों का पेट भी भर सकता है । किेतना भी खर्च किया जाय पर उस खर्च के बावजूद भी आज इसके पास है क्या, जिससे यह जाना जाय कि बहुत साधन जुटाया तो आज कुछ भरे पूरे हैं । सो भरे पूरे की भी बात क्या है ? कल्पना करो कि बड़े सादे जीवन से रहे होते तो जो व्यय किया गया उसका एक चौथाई व्यय हुआ होता । तीन गुना जो व्यय होता है वह परोपकार में, दान में, सेवा में, धर्मकार्य में किसी में लगाया होता तो उसका आज संतोष होता, लोग आभार मानते, स्वयं के पुण्यवृद्धि होती । इस लोक के हिसाब से और परलोक के हिसाब से भी नफा ही रहता । लेकिन क्या कर डाला ? स्वाद के लोभ में आकर आहार में जो रागबुद्धि और रागप्रवृत्ति की उससे जीव को लाभ कुछ नहीं होता । ज्ञानी संत आहार की तृष्णा से विरक्त हैं । आहार से विरक्त हैं उन्हें तो यह विवेक समझाता है – उठ लो आहार को, नहीं तो अपने तप और संयम की साधना के योग्य भी देहबल न रह सकेगा । तो विवेक जबरदस्ती साधुवों को आहार करवाने को उठाता है, पर जो साधु हैं, आत्मसाधना में ही जिनका चित्त बसा है वे ही आहार से विरक्त हैं ।विरक्ति से ध्यान की पात्रता –भैया ! अनेक व्यर्थ सांसारिक बातें हैं बातचीत, नाम, प्रतिष्ठा आदि, इनसे विरक्ति हो, काम भोगों से विरक्ति हो तो ऐसे निष्पृह साधु ध्यान साधना के पात्र होते हैं, ध्यान की साधना सबको चाहिए । उत्तम ध्यान, शांति दिलाने वाला ध्यान गृहस्थों को भी चाहिए । तो जो उपदेश मुनियों को दिया गया है वही उपदेश सबको है । मुनि उसे बहुत निभा सकते हैं, गृहस्थ उसे कम निभा सकते हैं । कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुनि आहार शरीर आदिक से विरक्त हों तो ध्यान कर सकते हैं और गृहस्थ आहार शरीरादिक में खूब अपनी विशेषता बनायें तो ध्यान कर सकते हैं ऐसा तो नहीं है । ज्ञान और वैराग्य से भी ध्यान के जड़ हैं, जो जितना बना सके वह उतना ध्यान का पात्र है, ऐसे ये ज्ञानी विरक्त योगीश्वर प्रशंसनीय ध्याता कहे गए हैं ।