वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 362
From जैनकोष
अशेषसंगसन्न्यासवशाज्जितमनोद्विजा: ।विषयोद्दाममातंग घटासंघट्टघातका: ॥362॥
सकलसंगसन्न्यासियों का ध्यातृत्व –जो मुनीश्वर सर्वपरिग्रहों के त्याग के कारण मनरूपी पक्षी को जीत लेते हैं – जैसे पक्षी अति चंचल है, बंदर भी अति चंचल है, न पक्षी शांत रहकर किसी जगह बैठा रह सकता है, फुदकेगा, आगे जायगा, पीछे जायगा, पंख चलायेगा, उड़ेगा, यों कुछ न कुछ हरकत करता ही रहता है ऐसे बंदर भी अति चंचल है । कहीं हाथ पैर हिलायेगा, कहीं सिर हिलायेगा, कहीं आँख मटकायेगा, उनसे भी चंचल है मन । मकान में ही बैठे बैठेन जाने मन कहाँ-कहाँ दौड़ जाता है, न जाने क्या-क्या सोच डालता है, कुछ रुकावट की भी बात नहीं है, ऐसा अति चंचल मन जिन्होंने नि:संगता निष्परिग्रहता के उपायों से जीत लिया है और जिन्होंने मदोन्मक्त कर लिया, उनका विनाश कर दिया है ऐसे योगीश्वरों के ध्यान की सुगम सिद्धि होती है । यों कह लीजिए कि अधिक से अधिक गरीब बन जायें तो ध्यान की सिद्धि होगी । दुनिया में जैसे ऐसा कोई पुरुष नहीं मिलता कि अच्छी तरह से धनी हो तो ऐसे ही ऐसा भी कोई पुरुष न मिलेगा जो पूरी तरह से गरीब भी हो । गरीबों से भी गरीब देखोगे तो भी उसके पास कुछ न मिलेगा, और धनी से धनी को भी देखोगे तो वहाँ भी कुछ कमी मिलेगी । पर ऐसा गरीब हो कोई, अत्यंत आकिंचन, कि देह तक को भी ग्रहण न करे उपयोग में, अपने आपके एकत्व की ओर ही जिसका उपयोग रहे, सबका परिहार है, कुछ भी साथ नहीं हैं, यहाँ तक कि रागद्वेषादिक विकारों का भी ग्रहण नहीं है, सब कुछ हट गया है, केवल निजसहजस्वरूप ही जिसके स्वरूपगृह में पड़ा है ऐसा आकिंचन पुरुष ही उस परमआनंद की सिद्धि का पात्र है जो आनंद स्वाधीन है, सदाकाल रहा करता है, ऐसे नि:संग, निष्परिग्रह, आकिंचन केवल ज्ञानस्वभाव को ही रुचि करने वाले योगीश्वर प्रशंसा योग्य हैं । उनके गुणस्तवन से, गुणध्यान से हम अपने आपमें भी उस ही प्रकार ध्यानसाधना का यत्न करें जिस मार्ग से चलकर वे ज्ञानी ध्यानी पुरुष आनंदमग्न हुए हैं ।