वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 365
From जैनकोष
स्वर्णाचल इवाकंपा ज्योति:पथ इवामला: ।समीर इव नि:संगा निर्ममत्वं समाश्रिता: ॥365॥
स्थिरचित्तता में ध्यान की पात्रता –जो योगीश्वर मेरु पर्वत के समान अचल हैं, आकाश की तरह निर्मल है, वायु के समान नि:संग है, जिन्होंने निर्ममता को आश्रय दिया है ऐसे योगीश्वर ध्यान की सिद्धि के पात्र कहे गये हैं । जैसे मेरु पर्वत में प्रलयकाल की वायु भी चले तो वह नहीं टूटता है । ऐसी प्रचंड वायु जिसमें ये सब पहाड़ जमीन में लेट जायें, ध्वस्त हो जायें, पहाड़ की जगह जल हो जाय, ऐसी भी उथल पुथल मचा देने में समर्थ प्रलयकाल की प्रचंड वायु चले, लेकिन उससे क्या कभी मेरुपर्वत चलायमान हो जायेगा । इसी प्रकार के कितने ही परिषह आयें, राग उत्पन्न करने के साधन आयें, अथवा द्वेष उत्पन्न होने के साधन जुटें, समस्त स्थितियों में जो ज्ञानी संत, साधु पुरुष अचल रहते हैं । अपने स्वरूप से, श्रद्धा से भ्रष्ट नहीं होते हैं । यों जो मेरु पर्वत जैसे कि अचल है उस तरह जो अपनी स्वरूप दृष्टि में अचल हैं वे पुरुष ध्यान सिद्धि के पात्र हैं । चित्त चल गया वहाँ ध्यान की सिद्धि नहीं होती । लौकिक ध्यानों को कोई करता है उसमें भी चित्त की स्थिरता की आवश्यकता है । और ऐसा सुन गया कि कभी कोई मंत्रसाधना करते हुए में डिग जाय, घबड़ा जाय या राग और तृष्णा की बात मन में समा जाय तो ध्यान सिद्धि तो दूर रही, बताते हैं कि वह पागल सा हो जाता है । चित्त की स्थिरता होना तो सब जगह श्रेयस्कर है । कितने ही लोग तो चित्त की अस्थिरता से बीमारी बुलाते हैं, बढ़ाते हैं और मरण भी कर जाते हैं । चित्त में बल हो तो बहुत सी विपदाओं से यह अलग रह सकता है । बल की ही तो बात है । जो गृहस्थ, जो प्राणी सुखी है वह एक इस मनोबल के कारण सुखी है । तो जिनका चित्त, उपयोग इतना निष्कंप है जैसे कि मेरु पर्वत, ऐसे विशुद्ध ज्ञान वाले और अपने स्वरूप में दृढ़ता से लगन करने वाले ही योगीश्वर प्रशंसनीय ध्याता हैं ।निर्मल नि:संग योगियों की ध्यानपात्रता –देखिये आकाश कितना निर्मल है । कभी आकाश में मैल भी लग सकता है क्या ? लोग कहते हैं कि आज तो आकाश धुंधला सा है, तो क्या आकाश कभी धुंधला होता है ? आकाश तो जो है सो है, अमूर्त है, उसमें मैल आता ही नहीं है । जो धुंधले हैं वे जल के कण हैं । उस रूप में फैल गए हैं या अन्य कुछ हैं । आकाश तो निर्लेप है, निर्मल है ।तो जैसे आकाश निर्मल है इस ही प्रकार जिसका चित्त निर्मल है वह पुरुष प्रशंसनीय ध्याता है । जैसे वायु, उसके साथ कुछ लगा है क्या, उसमें कुछ लिपटा है क्या ? वह तो चलती है बहती है । वह नि:संग है, निष्परिग्रह है । इसी प्रकार जो योगीश्वर नि:संगता में बढ़े चढ़े हैं, जिनके केवल एक अपने आत्मा के अंतस्तत्त्व का ही लगाव है, समस्त पर परिग्रहों से विरक्त हैं ऐसे नि:संग ज्ञानी पुरुष ही ध्यानसिद्धि के पात्र हैं । सबसे मुख्य बात तो यह है कि जिनके चित्त में प्रमाद का परिणाम रहता है वे ध्यान सिद्धि के पात्र नहीं, किंतु ममतारहित परिणाम रहे, केवल ज्ञानस्वरूप जाननहार मात्र रहे तो वहाँ ध्यान की सिद्धि होती है ।