वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 37
From जैनकोष
विलोक्य भुबनं भीमयमभोगींद्रशंकितम्।
अविद्याब्रजमुत्सृज्य धन्या ध्याने लयं गत:।।37।।
स्वरूपविवेक―इस भयानक कालरूपी सर्पों से भरे हुए संसार में जो मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण के स्वरूप को छोड़कर निज स्वरूप के ध्यान में लवलीन हो जाता है वह महा भाग पुरुष धन्य ह। चीज वही एक है पर जिसका जैसा उपादान है रागी रहने का, विरागी होने का वह उससे वैसी शिक्षा लेता है। एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध है। कोई एक वेश्या गुजर गई। उसको जलाने के लिये लोग मरघट लिये जा रहे थे। तो एक कामी पुरुष उस मरी वेश्या के मृतक शरीर को देखकर सोचता है कि यदि यह कुछ और जीवित रहती तो मैं इससे और मिलता, और एक साधु पुरुष उस वेश्या के मृतक शरीर को देखकर चिंतवन करता है कि 84 लाख योनियों में भ्रमते-भ्रमते इसने दुर्लभ मनुष्यभव धारण किया था, किंतु यों ही व्यर्थ खो दिया। वह मन में खेद प्रकट करता है। मरघट में स्याल वगैरह सोचते हैं कि ये मूर्ख लोग इसे बेकार में जलाये दे रहे हैं। यदि इसे यों ही छोड देते तो महीने दो महीने का हमारा भोजन होता।
बुद्धयनुसारिणी वृत्ति― भैया ! और तो क्या, अपने-अपने जीवन की बात निरख लो। आप लोग मंदिर आते हो तो मंदिर में चीजें तो वही हैं, आने वाले लोग वही हैं, कोई किसी प्रसंग को निरखकर कुछ परिणाम करता है कोई कुछ परिणाम करता है, चीज वही है पर जैसा उपादान है वह अपनी योग्यता के माफिक अपना विचार बनाया करता है। तब जो ज्ञानी संत जो पुरुष हैं वे इस जगत को भयानक कालरूपी सर्प से अंकित देखा करते हैं, क्या यह है जगत्? ये सब परिणमन सदा रहने के नहीं हैं, शीघ्र ही विघट जायेंगे।
ज्ञानजागृति में संकटविनाश― एक बुढ़िया थी, उसके एक इकलौता लड़का था और वह गुजर गया, तो आप समझो कि बुढ़ापे में मात्र एक सहारा और वह भी गुजर गया तो कितना कष्ट होता है? वह बुढ़िया बहुत दु:खी हुई, वह रोती फिरे। एक साधु महाराज मिले, बुढ़िया ने कहा― महाराज मेरा लड़का जीवित कर दीजिए। मैं बड़ी दु:खी हूँ। मेरा यह इकलौता लड़का है, कैसे मेरा जीवन कटेगा? तब साधु ने कहा―अच्छा तेरा लड़का जीवित हो सकता है किंतु तुम्हें एक काम करना होगा। हाँ-हाँ महाराज ! जो कहोगे सो करूँगी। देख तू ऐसे 10 घरों से सरसों के दाने मांगकर ले आ, जो घर ऐसा हो जिस घर में कभी कोई मरा न हो। वह बुढ़िया बड़ी खुश होकर सरसों मांगने गई। एक घर में कहाँ मुझे एक पाव सरसों के दाने दे दो, मेरा लड़का मर गया है वह जीवित हो जायेगा। तो देने वाला कहता है कि अगर इससे लड़का जीवित होता है तो एक पाव क्या 5 सेर ले जावो। तो बुढ़िया ने फिर पूछा कि यह बतावो कि तुम्हारे घर में कभी कोई मरा तो नहीं है? तो उसने गिना दिये सभी घर के मरे हुए लोगों को जिनकी उसे सुध थी। तो बुढ़िया बोली कि हमें ऐसे दाने नहीं चाहिये। इसी प्रकार दसों घरों में देख डाला पर कोई ऐसा घर न मिला जिसमें कोई कभी मरा न हो। यह हालत देखकर उसके ज्ञान जग गया, सोचा कि जो जन्मा है वह तो मरेगा ही नियम से। लो उसका सारा दु:ख मिट गया। साधु के पास प्रसन्न चित्त होकर पहुँची बुढ़िया। साधु ने देखकर पूछा― कहो बुढ़िया तेरा लड़का जीवित हो गया क्या? तो वह बुढ़िया बोली― हाँ महाराज जीवित हो गया। वह मेरा लड़का है मेरा ज्ञान। मेरा ज्ञान प्रकट हो गया तो मैंने सब कुछ पा लिया।
आनंद का विवेकानुगम― देखिये लोग नाहक दु:खी होते हैं। दु:ख है कहाँ, और सुख है कहाँ? कुछ बाहरी भोग समागम मिल गये तो कहाँ उनसे सुख और कहीं उनसे दु:ख है। यह सुख दु:ख तो अपने ज्ञान अज्ञान पर निर्भर हैं। सही ज्ञान हो, विवेक जागृत हो तो उसे आनंद ही आनंद है और जिसके विरुद्ध ज्ञान है उसको अपने कुज्ञान के कारण दु:खी ही होना पड़ेगा। भेदविज्ञान करना बहुत जरूरी है, अपने को ऐसा अनुभव करना है कि समस्त परवस्तुवों से निराला केवल ज्ञानमात्र यह मैं हूँ। कहाँसुख है, कहाँदु:ख है? कल्पना में सुख है और कल्पना में दु:ख है।
कल्पना से अन्यत्र कुटुंब कहाँ― एक पुरुष एक वर्ष के लड़के को घर में छोड़कर करीब हजार मील दूर व्यापार करने चला गया, व्यापार वहाँ अच्छा चल गया। तो अब यों समझिये कि 14 वर्ष गुजर गये, उसे घर आने का मौका न मिला। अब माँकहती है अपने बेटे से, बेटा चले जावो, तुम्हारे पिता अमुक स्थान पर रहते हैं, अमुक पता है, उन्हें जाकर लिवा लावो। वह लड़का चला अपने पिता को लिवाने और उधर से वह पिता चला अपने घर के लिये। रास्ते में किसी गाँव में एक धर्मशाला पड़ती थी। दोनों ही एक धर्मशाला में पास-पास के कमरे में ठहर गये। रात्रि को उस लड़के के पेट में बड़े जोर का दर्द हुआ, रोने लगा, चिल्लाने लगा। वह पुरुष मैनेजर से कहता है कि इस लड़के को कहीं दूर कर दो, रात्रि के हम जगे हुए हैं, इसके रोने से हमें नींद नहीं आ रही है। मैनेजर ने कहा कि रात्रि के 12 बज गये हैं, इसे कहाँ दूर कर दें? पर वह पुरुष बोला कि हमने तुम्हें 10) इसलिये दिये हैं कि रात्रिभर आराम से हम रहें। यदि तुम इसे दूर नहीं करते तो हम तुम्हारी शिकायत कर देंगे। दर्द बढ़ जाने के कारण उस लड़के का हार्ट फेल हो गया, मर गया। यद्यपि उस पुरुष के पास पेट दर्द की दवा थी पर उस लड़के पर दया न आई। उसके सामने ही मर गया।
कल्पना का प्रभाव― वह व्यापारी दूसरे दिन अपने घर पहुँचा, स्त्री से पूछा― बचा कहाँहै? स्त्री ने बताया कि बच्चे को तो आपके लिवाने के लिये भेजा है। लौट पडा वह बच्चे की तलाश में। कई जगह धर्मशालावों में पता लगाया। पता लगाते-लगाते वहाँ पर भी पहुँचा जिस धर्मशाला में वह ठहरा था। पता लगाया तो रजिस्टर में साफ ब्यौरा लिखा हुआ था कि अमुक नाम का लड़का यहाँ ठहरा था। मैने जर ने उसे पुरुष से बताया कि वह लड़का यहाँ ठहरा था, अपने पिताजी को अमुक स्थान पर लिवाने जा रहा था, उसके पेट में दर्द यही पर उत्पन्न हुआ। लो कुछ-कुछ उसे सुध हुई। पूछा फिर क्या हुआ? मैनेजर ने बताया कि उस लड़के का यही पर हार्ट फेल हो गया। इतनी बात सुनकर वह पुरुष बेहोश होकर गिर पडा। भला बतलावो तो सही कि जब लड़का सामने था तब तो एक आँसू न गिरा और जब लड़का सामने नहीं है तो बेहोश होकर गिर पडा, इसका क्या कारण है? अरे उसने यह ध्यान बनाया कि वह मेरा ही लड़का था, इस कारण उसे बेहोश होकर गिरना पडा। तो दु:ख तो इस कुबुद्धि के कारण मिलता है।ज्ञानी संतपुरुष इस मायामय संसार को असार समझकर अपने आत्मतत्त्व के ध्यान में लीन हो जाते हैं। वे महाभाग पुरुष धन्य हैं।