वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 38
From जैनकोष
हृषीकराक्षसाक्रांतस्मरशार्दूलचर्वितम्।
दु:खार्णवगतं विश्वं विवेच्य विरतं बुधै:।।38।।
जीव पर राक्षसों का आक्रमण― जो बुद्धिमान हैं वे इस जगत को इंद्रिय राक्षसों से भरा हुआ, कामरूपी सिंह से चबाया हुआ और दु:खरूपी समुद्र में डूबा हुआ समझकर इस जगत को त्याग देते हैं। भला विचारों तो सही, जिस स्थान में राक्षस रहते हों, सिंह आदिक क्रूर जानवर रहते हों उस स्थान पर विवेकी पुरुष रहना पसंद करेंगे क्या? किन राक्षसों से भरा हुआ यह जगत है? यह इंद्रियज्ञान, इंद्रियज वासना। ये सारी इंद्रियाँ इस जीव को परेशान कर रही है, खुद का जो पवित्र स्वरूप है उसका स्मरण ही नहीं हो पाता है, लेकिन इन इंद्रियविकारों ने, इंद्रिय इच्छावों ने, इंद्रिय राक्षसों ने इस जीव को सता डाला है और कामरूपी सिंह से यह जगत चबाया जा रहा है। जैसे सिंह किसी को खा ले, ऐसे ही यह काम इस जगत को चबा डालता है।
काम की घातकता― एक भजन में लिखा है।‘‘है काम नाम में देव लगाया किसने, यह तो प्रधान उनमें हिंसक हैं जितने।’’ लोग कहते हैं ना कामदेव। काम नाम हे विषयवासना का, उसमें लगा दिया है देव। तो इस काम में देव नाम किसने लगाया है? यह काम तो जितने भी दुनिया में हिंसक हैं उन सबमें प्रधान है। हिंसकों में प्रधान लोग ढीमर को या मछली पकड़ने वालों को बताते हैं। जो जाल डालकर या अन्य तरह से मछली पकड़ते हैं। मछली पकड़ने वाले लोग बहुत से ऐसी हिंसक प्रकृति के होते हैं कि जिंदा मछलियों को आग में डालकर भुन डालते हैं तो क्या यह कम हिंसा है? तो यह कामदेव भी, यह कामविकार भी इस जीव पर कितना अन्याय किये हुए हैं, सोचिये तो सही। यह कामविकार जिनशासनरूपी शांत सुखद समुद्र से इस जीव को निकालकर नाना प्रकार के विकल्पों में फँसाकर यह दु:ख संतापरूपी अग्नि में झोंक देता है, यह तो प्रधान हिंसक है, किंतु यह जब कामरूपी सिंह से चबाया गया है और दु:खरूपी समुद्र में डूबा हुआ है, ऐसे इस जगत को असार समझकर बुद्धिमान पुरुष त्याग देते हैं।
पुराण पुरुषों की चर्या― देखो भैया ! अपने पुराण पुरुषों के इतिहास, महापुरुषों ने बहुत-बहुत राज्य किया, अंत में ज्ञान जगा, वैराग्य हुआ, बच्चों को राजतिलक करके अथवा यों ही बिना किसी के संभलवाये इस जगत का त्याग किया और अपने इस सच्चिदानंदस्वरूप आत्मब्रह्म में उन्होंने उपयोग लगाया। सब दृष्टि की बात है। अच्छा यह तो बतावो कि सबसे मीठी चीज क्या लगती है? सभी अपने-अपने मन की बात बतावो। तो कोई कुछ बतायेगा कोई कुछ, पर योगींद्रों को एक आत्मस्वरूप का प्रकाश पा लेने में आनंद मिलता है। उसी को पाकर वे प्रसन्न रहा करते हैं। तो उन योगीश्वरों को आत्मस्वरूप का ध्यान मीठा लगता है। इससे बढ़कर मधुर चीज इस जगत में नहीं है। बहुत से पुराणपुरुष ऐसे हुए जिन्होंने इस मधुर चीज को पाकर अजर अमर पद पाया और जिन्होंने भोग में रहकर मरण किया उन्होंने निम्नपद पाया।
ग्रहणविवेक― अब सोच लीजिये किसी पुरुष के आगे एक तरफ तो खल के टुकड़े रख दें और एक तरफ हीरा रत्न जवाहिरात रख दें और कहा जाय कि भाई इन दो में तुम जो चाहे सो उठा लो और वह उठा ले खल का टुकड़ा तो उसे कौन बुद्धिमान कहेगा? ऐसे ही आपके सामने 2 चीजें पड़ी हुई हैं, एक ओर तो सारा संताप विषयवासनावों का विकार और एक ओर रखा है आनंदधाम, प्रसन्नता का शुद्ध स्वच्छ स्वरूप। अब इन दोनों में से जिसकी भी यह जीव भावना करे, जिसको प्राप्त करने की दृष्टि करे उसको वह चीज प्राप्त हो सकती है। यह बात यथार्थ ध्रुव है। इतने पर भी यह जगत का प्राणी माँग बैठे विकार, विपदा, विषयकषाय तो उसे कोई विवेकी कहेगा क्या? केवल ध्यान से, केवल भावना से यह संसार का क्लेश भी मिल सकता है और मोक्ष का आनंद भी मिल सकता है। कुछ निर्णय कर लो, क्या चाहिये? जो प्राप्त हो सकता है व भावसाध्य है। आत्मा तो और करता ही क्या है? सिवाय एक भावना के मतलब यह है कि अपनी भावना विशुद्ध बनायें तो इस भावना की विशुद्धि से सर्व कल्याण होगा। एक यही करने का काम पडा हुआ है। दृष्टि सही बनायें, ज्ञान सही बनायें और इस सहजस्वरूप के रमण का ही यत्न करें, बस इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय के प्रताप से समस्त दु:ख आपके दूर हो सकते हैं।