वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 372
From जैनकोष
रुद्धे प्राणप्रचारे वपुषि नियमिते संवृतेऽक्षप्रपंचे ।नेत्रस्पंदे निरस्ते प्रलयमुपगतेऽंतर्विकल्पेंद्रजाले ॥
भिन्न मोहांधकारे प्रसरति महसि क्वापि विश्वप्रदीपे ।धन्यो: ध्यानवलंबी कलयति परमानंदसिंधुप्रवेशम् ॥372॥
श्वास, काय, इंद्रिय, नेत्र के संवरपूर्वक ज्ञानबल से आत्मप्रकाश का विकास –जो पुरुष ध्यान की अनेक साधना करके निज तेजपुंज को अपने हृदय में धारण करते हैं वे ही पुरुष प्रशस्त ध्याता हैं । ध्यान की क्रिया में सर्वप्रथम श्वासोच्छ्वास के रोकने की क्रिया की जाती है । जो पुरुष ध्यानसाधना में अपनी वृत्ति बनाना चाहते हैं वे प्राणायाम का अभ्यास करते हैं जिस प्राणायाम का वर्णन इसी ग्रंथ में किसी प्रकरण में आयगा । तो प्रथम तो श्वासोच्छ्वास के निरोध की क्रिया, दूसरे – शरीर को निश्चल रखने की क्रिया । शरीर हिले डुले नहीं, स्थिर आसन से और सुगम सीधा अपनी काय रखकर शरीर को निश्चल करें, दूसरी बात इंद्रिय के प्रचार का सम्वरण करें । इन इंद्रियों से देखने का सुनने का किसी भी प्रकार का ख्याल न लायें, न इंद्रिय की प्रवृत्ति को रखें, जिसमें नेत्रों का स्पंद रुक जाय । नेत्र भी चलनक्रिया से रहित हो जायें, फिर मन को भी रोके अर्थात् विकल्पजाल, इंद्रजाल का प्रलय हो जाय, कोई विकल्प चित्त में न आने दें, ऐसी स्थिति में मोहांधकार दूर होता है, और जब जो साधु स्वपर प्रकाशक इस तेजपुंज को हृदय में धारण करता है, वह मुनि ध्यानावस्थी होता है । और यह मुनि आत्मध्यान समुद्र में प्रवेश करता है, उत्कृष्ट आनंद का अनुभव करता है ।आत्मध्यान की शरणरूपता –हम आप सबके लिए एक आत्मध्यान ही शरण है, जिसके प्रताप से संकल्प विकल्प दूर हो जायें और केवलज्ञान में ज्ञान का अनुभव रहे उसकी महिमा का कौन वर्णन कर सकता है । हम सबका ऐसा आत्मध्यान ही वास्तविक शरण है । व्यर्थ का मोह जाल, जिसमें कुछ मिलने की आशा भी नहीं है । अच्छा बतावो अपने आपकी दृष्टि से अपने सारे ढंग हैं, ऐसे मोह जाल से हित नहीं है । अच्छा बतावो अपने आपकी दृष्टि से अपने आत्मापर दया करके सोचिये कि जो कुछ राग मोह का प्रर्वतन किया जा रहा, कुछ ही लोगों को अपना सब कुछ समझकर उनका ही राग, उनकी ही व्यवस्था में जो विकल्पजाल किया जा रहा इसके फल में आत्मा की आबादी क्या होगी, कौन सा लाभ होगा, क्या शांति मिलेगी, समृद्धि होगी, अनाकुलता जगेगी, कर्मों की निर्जरा होगी ? कुछ भी तो नजर न आयेगा । बरबादी की दृष्टि से देखो तो संसार में ही रुलेगा । यह बरबादी तो स्पष्ट ही है । अपने ज्ञान का आवरण रहेगा, कुयोनियों में जन्म होगा । और फिर जिनको अपना इष्ट जान कर इतना राग रंग में तृष्णा में धसे-फसे हुए हैं ये कोई जीव साथ नहीं निभा सकते । क्यों निभायेंगे । तो इन सब परकीय ध्यानों में, लगावों में हित कुछ नहीं है । हित तो एक अपने आत्मा के विचारों में, ध्यान में, अपने आपको विशुद्ध आचरण में रखने में है । इस जीव का कोई दूसरा साथी नहीं है । अपने आपका सही श्रद्धान हो और विशुद्ध आचरण हो । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, तृष्णा, मूर्छा इन पापों से अपने को निवृत्त रखें । गृहस्थ हैं तो गृहस्थ धर्म में जो योग्य आचरण बताया उसे निभायें, साधु है कोई तो साधु धर्म में जो निवृत्ति बताया उसे निभायें, इसमें ही हित है । अपने आपको पाप परिणाम में रखने से आत्मा में कुछ समृद्धि नहीं जगती, न आत्मबल बढ़ता । जिनको भी ऋद्धि और सिद्धि उत्पन्न हुई है उन्हें शुद्ध आचरण के प्रताप से हुई है । आचरण जिनका भ्रष्ट है उनको कोई ऋद्धि सिद्धि समृद्धि संतोष ये कुछ भी प्राप्त नहीं होते । सो ध्यान की समस्त क्रियावों को करते हुए जो अपने इस धर्ममूर्ति भगवान आत्मा का ध्यान रखते हैं वे उत्कृष्ट आनंद का अनुभव करते हैं ।