वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 373
From जैनकोष
अहेयोपादेयं त्रिभुवनमपीदं न्यवसित: ।शुभं वा पापं वा द्वयमपि दहन कर्म महसा ॥
निजानंदस्वादव्यधिविधुरीभूतविषय: ।प्रतीत्यौच्चै: कश्चिद्विगलितविकल्प: विहरति ॥373॥
ज्ञानियों का ज्ञानविकार –जो पुरुष आत्मध्यान में स्थित होते हैं, जिनके ध्यान की प्रगति हुई है उनके ध्यान में तो निश्चलता है ही । ध्यान में अभ्यस्त साधु संत विहार करते हुए भी निश्चल के समान रहते हैं वे शुभ और अशुभ समस्त कर्मों को जलाते हुए इस त्रिभुवन में जो न हेय है न उपादेय है, उस विशुद्ध तत्त्व में निर्विकल्परूप से भ्रमण करते हैं, अथवा यों समझिये कि आत्मा का विहार है ज्ञान के द्वारा । ध्यान में अभ्यस्त पुरुष अपने इस ज्ञान के द्वारा तीनों लोक में एक साथ सर्वत्र विहार कर रहे है अर्थात् सबको जानते हैं । और व्यवहार में कभी भी जाये आये रहें । जिसकी जो लगन उसको वही रुचता है, उसका ही ध्यान रहता है । एक बात यह भर मालूम पड़ जाय, दृढ़ता से निर्णय में आ जाय कि अपने आपके प्रभु से लगाव लगाये रहने में तो सब कुछ मिल सकेगा – शांति, मुक्ति, निराकुलता । उद्धार हो जायगा, और एक इस अंतस्तत्त्व प्रभु को धोखा दिया जाय अर्थात् किसी असदाचार में, दुराचार में लगाया जाय, श्रद्धान बिगाड़ लिया जाय तो उसमें किसी भी प्रकार की सिद्धि नहीं हो सकती । अतएव जिन्हें शांति चाहिए, संपन्नता चाहिए, प्रसन्नता चाहिए उनका कर्तव्य है कि अपने आपको आत्मा के विरुद्ध आचरणों से दूर रखें । शुद्ध आचरण में अपना जीवन बितायें । जिन्होंने आत्मीय आनंद के प्रताप से शुद्ध स्वभाविक परमआल्हादरूप आनंद के अनुभव से इंद्रियविषयों को दूर कर दिया है ऐसे पुरुष निष्कषाय, निर्विकल्प, क्लेशरहित विशुद्ध ज्ञायकस्वभाव अपने आत्मप्रभु के ध्यान में लगते हैं और कर्मों की निर्जरा करते हुए यथेष्ट विहार करते हैं ।स्वरूपाचरण से संकटपारगता –रागद्वेष मोह से, पापविषयों की प्रवृत्ति से इस जीव का अहित ही है । जो शुद्ध ज्ञानी भव्य पुरुष होते हैं वे किसी भी परिस्थिति में अन्याय करना पसंद नहीं करते । अन्याय करके, धोका देकर यदि कुछ सांसारिक लाभ भी मिला तो क्या उसे निस्तारा होगा । यद्यपि अन्याय और धोखा से सांसारिक लाभ भी नहीं मिलते लेकिन ऐसा काकतालीय न्याय मिल जाय कि पुण्य का उदय भी आने वाला हो और उसी समय कोई इसके कुबुद्धि जग जाय तो जितना आने को है उससे बहुत कम आता रहेगा लकिन यही जीव उसी कम आने को अपनी चतुराई से आया है ऐसा मान ले तो यह उसके अज्ञान की बात है । भ्रष्टाचार से आत्मा को लाभ कुछ नहीं है, और मान लो दुनियावी लाभ मिल भी गया तो आत्मा का पतन कितना कर लिया । किसी पुरुष का धन नष्ट हो जाय तो यह कहना चाहिए कि मेरा कुछ नहीं गया है । बाहरी चीजें थीं, विकल्पों से अपना माना था, अब नहीं रहा । किसी का स्वास्थ्य बिगड़ जाय, कोई राजरोग जग जाय तो कहना चाहिए कि इसका कुछ कुछ गया । और, कोई पापमें लग जाय, आचार से भ्रष्ट हो जाय तो कहना चाहिए कि इसका सब कुछ गया । जिन महापुरुषों के हम आज भी गुण गाते हैं उन्होंने क्या किया ? प्रत्येक परिस्थितियों में चाहे उन पर कुछ बीती हो, अपने धर्म को अपने विशुद्ध आचरण को नहीं छोड़ा । इस ही दृढ़ता के प्रसाद से वे महापुरुष हुए और उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । तो यह सही निर्णय बनाएँ कि अपने को संसार के संकटों से छूटकर निराकुल अवस्था का अनुभव कर लेने का काम पड़ा है । जिन्होंने आत्मीय स्वभाविक आनंद प्रकट किया है अतएव इंद्रियविषय जिनके दूर हो गए हैं, जिन्होंने अपने तेज से पुण्य पाप सभी कर्मों को जला दिया है, तो जला रहे हैं और अपने आपके शुद्धस्वभाव का विश्वास करके जो सब कुछ जान रहे हैं वे निर्विकल्प रहकर रथेष्ट विहार करते हैं ।
स्वच्छ उपयोग में ध्यान की पात्रता –ध्यान की पात्रता उनके है जो अपने हृदय को स्वच्छ बना सकें । स्वच्छ बनाने की बात यह है कि प्रथम तो यथार्थज्ञान होना चाहिए यथार्थ ज्ञान उसे कहते हैं । भाव में रत रहा करते हैं जिस ज्ञान में ये समस्त पदार्थ स्वयं अपने आपके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में रत रहा करते हैं । प्रत्येक पदार्थ परस्पर एक दूसरे से अत्यंत भिन्न है । तीनकाल में भी किसी पदार्थ का किसी पदार्थ में न द्रव्य, न गुण, न पर्याय कुछ भी नहीं जाता है । यों समस्त पदार्थों को स्वतंत्र निहारने से हृदय में एक स्वच्छता हैजगती, क्योंकि अज्ञान मिटा, मोह दूर हुआ । इसके पश्चात् क्रोध, मान, माया, लोभ पंचेंद्रिय के विषयों में प्रवृत्ति आदि सबसे अपने को दूर करने का यत्न किया । जिसे मुक्ति रुच गई है, जिसके चित्त में यह समा गया है कि मेरे को तो मुक्तिपथपर चलने का काम पड़ा है । तो वे कर्मों को काटकर शिवमार्ग का लाभ लेने के लिए उद्यत होते हैं । यह बात चित्त में समाये तो हम संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होकर आत्मोद्धार के काम में सफल हो सकते हैं ।