वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 376
From जैनकोष
चित्ते निश्चलतां गते प्रशमिते रागाद्यविद्यामये,
विद्राणेऽक्षकदंबके विघटिते ध्वांते भ्रमारश्भके ।आनंदे प्रविजंभिते पुरपतेर्ज्ञाने समुन्मीलिते,त्वां द्रक्ष्यंति कदा वनस्थमभित: पुस्तेच्छया श्वापदा: ॥376॥
कल्याणस्वरूप की प्रतीक्षा – हे आत्मन् ! अपने लिए यह सोच कि ऐसा वह कौन सा समय आयगा जिस समय मेरे मन में निश्चलता उत्पन्न होगी और रागादिक अज्ञान रोगों में शांतता आ जायगी । वह क्षण धन्य है जिस क्षण मेरे मन में ऐसी संतुलित वृत्ति बनेगी कि मन तो निश्चल रहेगा और रागद्वेष अज्ञान, मोह ये सब रोग उपशांत हो जायेंगे । ऐसे क्षण प्राप्त हों तो वे क्षण धन्य हैं । मोही जीव मन चाही विभूति के मिलने पर, स्त्री पुत्रादिक के मिलने पर खुशी मनाते हैं । अरे वे तो और भी संसार में फँसाने के साधन हुए । धन्य समय तो वह है जहाँ सबसे विविक्त ज्ञानमात्र अपने आपके आत्मस्वरूप का ध्यान बना रहे । वह क्षण धन्य होगा, जिस क्षण ये इंद्रियों के समूह विषयों में प्रवृत्ति न करेंगे और धर्म को उत्पन्न करने वाला यह अज्ञान अंधकार नष्ट होगा । भ्रम दूर हो, अज्ञान दूर हो, इंद्रियों के विषयों में आशक्ति न हो । ऐसी शुद्ध वृत्ति जिस क्षण जगे वह क्षण धन्य है । क्षण तो अनंत व्यतीत हुए, अनंत व्यतीत होंगे । अब तक के व्यतीत हुए समयों में हमने कोई भी समय ऐसा तो नहीं पाया जिस क्षण को पाकर संसार की समाप्ति का फैसला हो जाय, अथवा नया भी होगा तो फिर कुछ जाल ऐसा लग जाता है कि सम्यक्त्व का भी घात हो गया लेकिन एक बार सम्यक्त्व के प्रकट होने पर यह तो निश्चित ही है कि निकट काल में ही समस्त संकटों से दूर होकर कैवल्य का आनंद प्राप्त करेंगे । वह क्षण धन्य है जिस क्षण इंद्रिय के समस्त विषयों में प्रवृत्ति न करे और अज्ञान का अंधकार दूर हो जाय । उस क्षण की प्रतिज्ञा करें और उस क्षण के आभारी बनें जिस क्षण ऐसा आत्मज्ञान प्रकट हो जो आनंद का विस्तार करता हुआ बने ।आत्मज्ञान और शुद्ध आनंद के विस्तार में अभिन्न संबंध – आत्मज्ञान और शुद्ध आनंद के विस्तार में परस्पर अभिन्न संबंध है । निर्विकल्प आत्मतत्त्व का उपयोग चल रहा है । निर्विकल्प आत्मतत्त्व का उपयोग चल रहा है और वहाँ आनंद प्रकट न हो, संकट रहे यह कभी हो नहीं सकता । यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप, यह शुद्ध ज्ञानविकास शुद्ध आनंदस्वरूप को लिए हुए है । जिस क्षण ऐसा उज्ज्वल ज्ञान चमके और आनंद का अनुभव बने ऐसा क्षण धन्य है । कब ऐसी स्थिरता बने कि अपने आपको अपने देह तक का भी भान न रहे, ज्ञानमात्र अनुभव करते हुए निर्भार शुद्ध प्रकाशमय अपने को लखते रहें, और इस स्थिरता के कारण वन में चारों ओर से हिरण आदिक जानवर इस मुझ मूर्ति की काय को ऐसा निश्चल देखकर ऐसा समझ लें कि यह तो कोई ठूठ खड़ा है अथवा कोई चित्र लिखित मूर्ति है या कोई पाषाणखंड है ऐसा समझकर इस मुझको देखें और अति निकट आकर अपने शरीर की खाज खुजालें । इस पर्याय को दृष्टि में रखकर कहा जा रहा है कि इस देह को दृढ़ समझकर खाज खुजाने लगें । ऐसा समय आये तो वह समय धन्य है । वह क्षण धन्य है जिस क्षण इस निश्चल मूर्ति में ध्यानस्थ होंगे । और समझिये कि वही वास्तविक हमारा जीवन है और उद्धार का समय है । यों तो विषयों की और विषयों के अनेक साधनों की खबर रखते हुए, उपभोग करते हुए अनंतकाल व्यतीत हो गया, अब नवीन जीवन नवीन क्षण की प्रतीक्षा कीजिए । कब वह समय आये कि मेरा उपयोग एकदम पल्टा खाये और संसार की ओर पीठ करके इस मुक्त स्वरूप की ओर अपनी दृष्टि बने, वह समय धन्य है । वही समय संकटों से छुटाने वाला है ।