वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 375
From जैनकोष
यै: सुतं हिमशैलश्रंगसुभगप्रासादगर्भानतरे,
पल्यंके परमोप धानरचिते दिव्याङ्नाभि: सह ।तैरेवाद्य निरस्तक्श्विषयैंत: स्फुरज्ज्योतिषिं,क्षोणीरन्प्रशिलादिकोटरगतैर्धन्यैर्निशा नीयते ॥375॥
ध्याता योगीश्वरों की ज्ञान से अपूर्व लगन –ध्याता योगीश्वर मुनि अवस्था से पहिले कैसी सुकुमारता और विषयसाधनों में रहते थे उसका वर्णन इस छंद में इसलिए किया जा रहा है कि यह विदित हो जाय कि आत्मध्यान कितनी उत्कृष्ट साधना है कि ऐसे-ऐसे सांसारिक सुखों का भी परित्याग करके आत्मध्यान के लिए इतने भारी क्लेश सहे जा रहे हैं । जिन्होंने पूर्व अवस्था में हिमालय के शिखर समान सुंदर महलों में बड़े उत्कृष्ट कोमल और सुगंधित रची हुई शैय्या पर शयन किया था और बड़ी आज्ञाकारिणी प्रियंवदा रमणियों के साथ जिन्होंने अपना समय सुख में बिताया था ऐसे ही पुरुष अब संसार के विषयों को दूर करके अंतरंग की ज्ञानज्योति स्फुरित हो जाने से पृथ्वी में, पर्वतों में, गुफावों में, शिलावों पर, वृक्षों की कोटरों में निवास करके रात बिताया करते हैं । धन्य है उनकी आत्मसाधना की धुन कि ऐसे आराम को तजकर ऐसी जगह निवास करके आत्मध्यान करते हैं जहाँ साधारण पुरुषों से रहा भी नहीं जा सकता । आत्मध्यान कोई ऐसी उत्कृष्ट विभूति है कि बड़े पुण्यवंत पुरुषों को, बड़े भाग्यशाली महापुरुषों को, बड़े बड़े विषयों के साधनों में भी इस आनंद की धुन के कारण चित्त नहीं लगा, और सब कुछ परित्याग करके ऐसे निर्जन स्थान में रहकर धर्म साधना किया करते हैं, पर्वतों की गुफावों में जहाँ शेर, रीछ, चीता आदिक अनेक हिंसक जानवरों का आवागमन रह सकता है, जिस चाहे जगह से भयंकर विशैले सर्प निकल सकते हैं ऐसी जगह में ध्यान करके कोई विलक्षण आनंद ही तो लूटा जा रहा है जिसके जिसके कारण अब ये ध्याता योगीश्वर ऐसे विषम संकटपन स्थान में आत्मध्यान कर रहे हैं । भला वृक्षों की कोटरों में जहाँ सर्प गुहा आदिक विषैले जानवरों का निवास रहा करता है वहाँ ही ये ध्याता योगीश्वर विलक्षण आत्मीय आनंद पा रहे हैं । तो कोई आत्मध्यान उत्कृष्ट तत्त्व ही तो है कि सुंदर महलों के निवास को तजकर और राजपाट की विभूति को छोड़कर एक आत्मध्यान के लिए इस प्रकार वृक्ष की खोह आदिक में निवास करके अपने को निर्मल बना रहे हैं, उन योगीश्वरों को धन्य है ।