वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 379
From जैनकोष
दृश्यंते भुवि किं न ते कृतधिय: संख्याव्यतीताश्चिरं ।ये लीला: परमेष्ठिन: प्रतिदिनं तंवंति वाग्भि: परम् ॥
तं साक्षादनुभय नित्यपरमानंदांबुराशि पुन-र्ये जंमभ्रममुत्सृजंति पुरुषा धन्यास्तु ते दुर्लभा: ॥379॥
परमेष्ठिभक्ति में अमरत्व का अनुभव – ध्याता योगीश्वरों की प्रशंसा करने वाले इस अधिकार को पूर्ण करते हुए कहते हैं कि इस लोक में परमेष्ठियों के नित्यप्रति वचनों से बहुत काल पर्यंत प्रभु लीला स्तवन को बड़े विस्तार करने वाले और स्तवन करके अपने को कृत बुद्धि मानने वाले क्या अनगिनते नहीं हैं ? हैं, किंतु नित्य परम आनंद अमृत की राशि को साक्षात् अनुभव करके अर्थात् परमेष्ठी परमात्मा के उस अनंत ज्ञानानंदस्वरूप का अनुभव करके जो संसार के भ्रम को दूर करते हैं, अपने जन्म के भ्रम को दूर करते हैं वे पुरुष दुर्लभ हैं और ऐसे ही पुरुष धन्य हैं । आत्मा तो ध्रुव है, प्रत्येक पदार्थ ध्रुव है । इस अविनाशी आत्मतत्त्व की दृष्टि में तो यह निश्चित है कि आत्मा नष्ट नहीं होता और ऐसे ही आत्मा को आत्मा मानने पर यही उपयोग अमरतत्त्व का अनुभव कहलाता है । मैं अमर हूँ । अपने अमर स्वरूप को अनुभव में ले तो यह आत्मा अमर है । जैसे कोई कथन में ऐसी बात आती है कि अमुक ने अमरफल खा लिया तो अमर हो गया । वह अमरफल क्या चीज है ? वस्तु जो आत्मस्वरूप है, स्वभाव है, अविनाशी तत्त्व है वह ज्ञान में आये तो अमर हुआ समझिये । कोई औषधि अच्छी मिल गयी और इससे वह दुर्बल नहीं हो सका, बीच में नहीं मर सका, बड़ी आयु पूर्ण करके ही मरा तो इतने मात्र से तो अमर नहीं कहलाता । अपने आत्मा का अमरत्वस्वरूप ध्यान में रहे तो वह अमर है । और इस दृष्टि से उसका फिर जन्म नहीं है । जन्म का क्रम समाप्त करने लिए अंतरंग में बहुत ज्ञान-बल चाहिए । जो किसी भी बाह्य पदार्थ से अपना हित अथवा सुख मानता हो, उनमें ममता रखता हो तो ऐसे संस्कार में, ऐसी दृष्टि में आत्मा के अमरस्वरूप का उपयोग नहीं रहता और फिर वहाँ मरण की कोई बात चर्चा में आने पर इसे क्षोभ होने लगता है । जिन्होंने मोह को मूल से नष्ट किया, अपने आत्मा के स्वतंत्रस्वरूप का जो प्रत्यय रखते हैं वे पुरुष अपने आपमें अमरत्व का अनुभव कर सकते हैं ।
परमेष्ठितभक्ति में स्वभावनुभव की प्रेरणा – परमेष्ठी की भक्ति का अर्थ ही यह है कि जो परमेष्ठी का स्वरूप है उस रूप में अपने आपका स्वभाव है यह तथ्य है, ऐसे निर्णयसहित अनुभव करना सो ही वास्तव में परमेष्ठी भक्ति है । तो वचनों से बहुत-बहुत काल तक परमेष्ठी का स्तवन करने वाले, गान तान संगीत से भक्ति प्रदर्शित करने वाले तो अनेक लोग हैं परंतु परमेष्ठी तो नित्य परम आनंदस्वरूप हैं और इस दृष्टि के साथ-साथ अपने भी स्वभाव का स्पर्श होता रहे इस शैली से ध्यान करने वाले, भक्ति करने वाले पुरुष दुर्लभ हैं और ऐसे ही पुरुष धन्य हैं अथवा इस काल में ऐसे ध्याता योगीश्वर नहीं हैं तो भी जो सिद्ध का स्वरूप है वह स्वरूप है, जो ध्यातावों का स्वरूप है वह स्वरूप है । उसकी चर्चा सुनने से और ऐसे ध्याता योगीश्वरों के ऐसे गुणों पर ध्यान जाने से अपना मन पवित्र होता है और उसके विरुद्ध मिथ्यात्व आदि का विनाश होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को धारण करके तथा कषायों की शांति में, इंद्रिय के दमन में और जैसे आत्मा शांति पथपर चल सके उस प्रकार अपने को नियंत्रण करने में जो चित्त देकर ध्यान करते हैं, अपने मन को रोकते हैं, एक आत्मस्वभाव में मन स्थिर करते हैं वे मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
षष्ठ सर्ग – सम्यग्दर्शन