वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 380
From जैनकोष
सुप्रयुक्तै: स्वयं साक्षात्सम्यग्दृग्बोधसंयमै: ।त्रिभिरेपावर्गश्रीर्धनाश्लेषं प्रयच्छति ॥380॥
सुप्रयुक्तरत्नत्रय की साधना से अपवर्गश्री का आश्लेष – भली प्रकार प्रयोग किए गए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र – इन तीनों के द्वारा अर्थात् तीन की एकता होने से मोक्षलक्ष्मी आत्मा को धनाश्लेष प्रदान करती है अर्थात् रत्नत्रय की अभेद साधना से मुक्ति की प्राप्ति होती है । ध्यान के संबंध में ही अब ध्यान के क्या अंग हैं, इस रूप से वर्णन किया जा रहा है । ध्याता पुरुष को कौन-कौन सी संभाल करना है, किन किन अंगो का साधन करना है जिससे परम ध्यान बन सके । इस प्रकरण में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना बतायी जा रही है और उसमें प्रथम सम्यग्दर्शन की साधना का वर्णन होगा, इसके बाद सम्यग्ज्ञान की साधना का और फिर सम्यक्चारित्र की साधना का वर्णन होगा । यह एक अधिकार रूप श्लोक है । ध्याता के अंग, ध्यान के अंग मुख्य तो ये रत्नत्रय हैं । अपने सहजस्वरूप का श्रद्धान हो, निज सहज स्वरूप में रमण हो इस शैली से जो आत्मा का पुरुषार्थ होता है, उस पुरुषार्थ से परम ध्यान की सिद्धि होती है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्ष का मार्ग है, यह श्लोक में बताया है, उसका कारण कहते हैं ।