वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 386
From जैनकोष
क्षीणाशांतमिश्रासु मोहप्रकृतिषु क्रमात् ।तत् स्याद्द्रव्यादिसामग्रया पुंसां सद्दर्शनं त्रिधा ॥386॥
क्षायिक, क्षायोपशमिक व औपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति की निमित्त कारण – यह सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का है – क्षायिकसम्यक्त्व, उपशमसम्यक्त्व, और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । मोहनीयकर्म के जो सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियां हैं – मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व , सम्यक्प्रकृति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, इनका क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व होता है । इसका उपशम होने से, दबने से उपशम सम्यक्त्व होता है और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ । उदयाभावी क्षय व उपशम और एक सम्यक्प्रकृति का उदय होने से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अथवा वेदकसम्यक्त्व होता है । निमित्त दृष्टि से सम्यक्त्व के ये भेद कहे गये हैं । प्रकृति मोह के उपशम से प्रकृति दर्शनमोह का उपशम चलता है । द्रव्य दर्शन मोह की अवस्था द्रव्यदर्शनमोह ही है । कहीं वह अवस्था मुझमें नहीं आयी, किंतु ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि जिस काल में यह उपशम है उस काल में यह सम्यक्त्व होता है । और उसमें निमित्तनैमित्तिक संबंध की विधि बनती है । हमारा जो कुछ भी परिणमन है एक वस्तुस्वरूप की दृष्टि से निरखा जाय तो कुछ भी परिणमन हो औपाधिक निरुपाधि सब कुछ परिणमन उसके स्वरूप के परिणमन से होता है ।विभावपरिणमन में निमित्तनैमित्तिक भाव होने पर भी स्वातंत्र्य का सद्भाव – यह जगत इन्हीं दो बातों का तो मेल है जहाँ स्वतंत्रता पूर्ण है और अशुद्ध परिणमन के लिए निमित्तनैमित्तिक संबंध भी बन रहा है । जैसे भगवान की दिव्यध्वनि सहजस्वभाव से होती है, दूसरे की अधीनता बिना होती है इसके लिए दृष्टांत दिया है समंतभद्रस्वामी का कि मृदंग बजाने वाले के हाथ से पीड़ित हुआ मृदंग उसमें से जो आवाज निकलती है वह मृदंग अपनी आवाज प्रकट करने के लिए किसी की अपेक्षा नहीं करता । यद्यपि स्थूल दृष्टि में ऐसा लगता है कि बजाने वाले ने न थपथपाया होता तो आवाज कहाँ से निकलती । तो यह बात तो मान ली गयी कि बजाने वाले ने बजाया तो आवाज निकली किंतु मृदंग में से जो शब्द परिणमन हुआ तो अब किसकी अपेक्षा करे । इसको गहरी दृष्टि से देखना होगा । कर्मों का उदय आया ठीक है आ गया । अब उस काल में जो यह जीव क्रोधरूप परिणम गया सो क्रोधरूप परिणमते हुए इसने किसी की अपेक्षा नहीं की । यह स्वयं की परिणति से क्रोधरूप परिणम रहा है । वहाँ जो निमित्त हुआ, ठीक है वह घटना, उसका खंडन नहीं परंतु परिणमन जितना जो कुछ होता है चाहे उपाधि के सद्भाव में हो, उपाधि के स्वरूप को ग्रहण किए बिना ही परिणमन होता है । यह वस्तु में उत्पाद व्यय ध्रौव्य का स्वभाव वस्तु के कारण पड़ा हुआ है निमित्त होने पर भी निमित्त का परिणमन ग्रहण करके निमित्त का द्रव्य गुण पर्याय लेकर उपादान परिणमन नहीं करता । प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणमन से परिणमता है । यह एक विधि है कि इस तरह का संयोग हो तो इस तरह परिणम जाय । यह निमित्तनैमित्तिक का विधान है किंतु परिणमन सबका अपने आपके अकेले से ही होता रहता है । दो द्रव्य मिलकर एकरूप नहीं परिणमा करते । जब यहाँ सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों का उपशम है तो उसका निमित्त पाकर यह जीव अपने ही परिणमन से औपशमिक सम्यक्त्वरूप परिणमन रहा है । जब क्षय-आदिक है तब क्षायिक आदि रूप परिणमन रहा है । तो यह निमित्त दृष्टि से वर्णन है ।अध्यात्मदृष्टि से आत्मा की समीचीनता की उद्भूति की पद्धति – अध्यात्मदृष्टि से यह जीव ज्ञानोपयोग से जब एकत्वस्वरूप को जानकर उस एकत्वस्वरूप के जानन में ही अपना उपयोग लगाता है तो निरालंब होने के कारण, उपयोग में पर की अपेक्षा न रखने के कारण इसके एक निर्विकल्प अनुभूति जगती है । निर्विकल्प अनुभूति है उसका संबंध स्व से रहता है, क्योंकि पर का संबंध हो तो वहाँ निर्विकल्पता नहीं होती । यों निर्विकल्प स्व की अनुभूति के साथ जो एक शुद्ध प्रकाश अनुभव में आया बस उस अनुभव के साथ सम्यग्दर्शन होता है । स्व के अनुभव के बिना किसी भी पुरुष को सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हो सकता । सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद चाहे वह कभी स्व का अनुभव न रखे, पर का ज्ञानोपयोग रखे यह बात जुदी है, पर जिस क्षण सम्यक्त्व उत्पन्न होता है तब सम्यक्त्व सहज आत्मतत्त्व के अनुभव के साथ ही उत्पन्न होता है । अपने आपके सहजस्वरूप की रुचि जगना इसे सम्यक्त्व कहते हैं । तत्त्व की रुचि का नाम सम्यग्दर्शन हैं ।