वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 387
From जैनकोष
भव्य: पर्याप्तक: संज्ञी जीव: पंचेंद्रियांवित: ।काललब्ध्यादिना युक्त: सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥387॥
सम्यक्त्वमथ तत्त्वार्थश्रद्धानं परिकीर्तितम् ।तस्यौपशमिको भेद: क्षायिको मिश्र इत्यपि ॥388॥
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पात्र – सम्यक्त्व कौन ग्रहण करता है जो भव्य जीव हो, पर्याप्त हो, संज्ञी हो, पंचेंद्रिय हो, वह काललब्धि आदिक से युक्त होता हुआ सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । भव्य सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अभव्य नहीं करता ऐसी बात सुनकर कुछ ऐसा लगने लगता होगा कि इतनी कड़ी यह व्यवस्था क्यों बनायी गयी है । भव्य ही सम्यक्त्व प्राप्त करे अभव्य न प्राप्त करे । व्यवस्था बनायी नहीं गयी, जो बात सहज जैसी है वह बतायी गयी है । यह एक विशेषता है जैनदर्शन में कि जैनदर्शन इस बात को पसंद करता है कि जो बात हो उसे कहा जाय । कभी मिलजुलकर कोई बात बनायी जाय, कानून बनाया जाय, कुछ रचना बनाई जाय, ऐसा नहीं । जो हो उसे कहना चाहिए, इसको अधिक पसंद किया । अधिक बल तत्त्वनिरुपण में जैनशासन ने यह दिया है कि जो जैसा हो उसका वैसा श्रद्धान करना, उसका वैसा ज्ञान करना, उसके अनुसार अपना उपयोग रखना बस यही मोक्ष का मार्ग है । पदार्थ पदार्थ का जो ध्रुवस्वरूप है उसमें भी जो नवीन परिणमन होता है और पुराना परिणमन विलीन होता है यह सब पदार्थ का स्वरूप है । सब कुछ दृष्टि रचना सब पदार्थों का पदार्थों पर ही छोड़ा गया है । तो जो जीव ऐसे हैं कि कभी सम्यक्त्व प्राप्त न करेंगे और सम्यक्त्व होने की पात्रता भी न पा सकेंगे ऐसे भी जीव हैं । और जो सम्यक्त्व प्राप्त करने की पात्रता रखते हैं, चाहे सम्यक्त्व पायें या न पायें ऐसे भी जीव होते हैं । तो ऐसे जो हों वे भव्य हैं, जो ऐसे नहीं हैं वे अभव्य हैं । भव्य जीव ही सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं । जो जीव लब्ध्यपर्याप्तक हैं अर्थात् जन्म लिया और शरीर भी बनने की पूरी शक्ति नहीं आ पायी और मर गए, ऐसे छोटे-छोटे मरने वाले जीवों के सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता । अथवा निर्वृत्य पर्याप्त की स्थिति में भी सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता । मन ठीक बन जाय, शरीर की रचना की शक्ति आ जाय, कुछ इस भव को कहने सुनने का सत्त्व तो बने जिसे लोग कहें कि हाँ कुछ हुआ । ऐसी पर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व होता है । जो मन सहित जीव हैं वे ही सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं ।
अपनी वर्तमान योग्यता का सदुपयोग करने का उत्साह – सम्यक्त्व की पात्रता के वर्णन को सुनकर अपने आपका ख्याल लायें कि हमने ये सारी बातें प्राप्त की हैं । अब प्रमाद करते हैं तो हम अपने ऊपर यह बड़ा अपराध करते हैं । क्या नहीं मिला ? सब योग्यता तो मिल गयी । अब भी यदि हम आत्महित की रुचि नहीं बढ़ाते तो हम अपने आपपर अन्याय कर रहे हैं, अपना जन्ममरण संसार बढ़ा रहे हैं । चीजें तो सब प्राप्त कर ली योग्यता की, जिनका यदि उपयोग करें तो संसार के संकटों से छूटने का हम उपाय बना सकते हैं । यदि कुछ संपदा प्राप्त हो गयी तो क्या प्राप्त हो गया । वह तो तृणवत् असार है । कुछ लोगों को दिखाने पोजीशन बनाने की बात हो तो किसका नाम पोजीशन और किसको दिखाना, यहाँ कोई हमारा प्रभु नहीं है, हमारी सुनाई करने वाला नहीं है, और पोजीशन में भी क्या है ? यह तो सब विडंबना हैं । ये नाक, आँख, कान आदिक सभी लग गए तो यह कोई पोजीशन की बात है क्या ? इन सब बातों से विरक्ति हो, अपने आपकी रुचि हो तब ही अपने हित की बात बन सकती है । खुद जरा कमजोर हों अपने ज्ञानबल में और संगति मिलती है मोहियों की अधिक तो उससे विडंबना बनती है । खुद यदि समर्थ हैं तो काम बने या कुछ अनायास ही चिर काल तक सत्संगति रहे तो उसके प्रताप से अपने में बल बढ़े, तो भी कुछ सिद्धि की बात चल उठे लकिन खुद कमजोर हों ज्ञानबल में और संगति मिले मोहियों की तो कैसी इच्छा जगेगी ? जैसी अन्य मोहियों की इच्छा होती है उस प्रकार की इच्छा जगेगी और इच्छा विकार के जगने से आत्मा में सर्व पतन अनर्थ होने लगते हैं । बड़ी जिम्मेदारी की बात है । कुछ बल पाया है तो जो चाहे कर लेना बड़ा आसान सा लगता है । कोई भी विषय भोग लेना, कुछ भी बात कर लेना, गरीबों को सता लेना, अनेक और और बातें कर लेना बड़ा आसान लगता है, लेकिन इसका क्या परिणाम होगा, इसकी ओर दृष्टि न दें यह भलाई की निशानी नहीं है ।अपमान उपसर्गों को विरासत मानने की ज्ञानशक्ति – ऐसा ज्ञानबल जगना चाहिए कि हे प्रभो ! यदि कुछ अपमान की स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं तो वे भी मेरे लिए भेंट हैं, उपहार हैं, इनसे मेरा बिगाड़ क्या है, बल्कि शिक्षा मिली है । एक आत्मा में बल प्रकट हुआ है । सहज शक्ति का उदय हुआ है, परवस्तुवों से लोगों से उपेक्षा करने की प्रकृति बनी है, नहीं तो सन्मान सन्मान में और अनुकूल वातावरण में राग के मारे करे जा रहे थे । यदि अपमान मिल रहे हैं तो यह मेरे लिए एक बड़े उपहार की चीज है । हममें सहनशक्ति जग रही है । हममें उपेक्षाभाव जगने लगा है, वह सामर्थ्य प्रकट हुआ कि ऐसा साहस बन गया कि जगत में जितने भी जीव हैं सभी के सभी मनुष्य यदि एक साथ निंदा करें, अपमान करें इतने पर भी उनकी चेष्टा के कारण मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं है । न होता मैं इस मनुष्य भव में, अन्य किसी भव में होता तो यहाँ के सब कुछ मेरे लिए क्या थे ? तो विवेकी पुरुषों के लिए सभी स्थितियाँ भले के लिए हैं । कहाँ क्या बिगाड़ । यदि दरिद्रता है, विशेष संपदा नहीं है तो यह भी हमारे लिए एक विरासत की स्थिति है ।स्वहित के लिये परोपेक्षा की अनिवार्यता – भैया ! यदि हित चाहते हो जितना जो कुछ वैभव होता उस सारे को लीपना पड़ेगा । उनकी व्यवस्था बनाना, चिंता करना, हिसाब लगाना और उसी के अनुपात से ही, उसी पोजीशन के अनुसार कल्पनाएँ बनाना और जब ऊँची कल्पनाएँ बन जाती हैं तो जरा-जरा सी बात में अपमान समझने की स्थिति बनने लगती है तो वे सब झंझट हैं । मेरा क्या बिगाड़ ? न मुझे कोई जानने वाला हुआ तो । ऐसे अनगिनते मुनि हुए हैं जिनको उनके समय में कोई जानता भी न था, लेकिन वे भी मुक्त हुए । उनके आनंद में और तीर्थंकर के आनंद में कोई अंतर है क्या ? उन अपरिचित मुनियों की समृद्धि में और परिचित मुनियों की समृद्धि में कुछ अंतर है क्या ? एक विशिष्ट उपयोग जगता है विवेकी पुरुष में और इसी कारण सम्यग्दृष्टि पुरुष किसी भी परिस्थिति में घबड़ाता नहीं है । स्वयं अपने आपको निर्दोष सत्पथगामी होना चाहिए, उसको फिर कहीं भी क्लेश नहीं है । जो होता हो तो उसका यह ज्ञाता दृष्टा रहे तो जो विवेकी जीव हैं वही सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है । पंचेंद्रिय तो होगा ही । पंचेंद्रिय के बिना मन तो होता ही नहीं । तो ऐसा समर्थ आत्मा काललब्धि आदिक सामग्री मिलने पर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । और, उस सम्यक्त्व में 7 तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान है, और निमित्त दृष्टि से वह सब श्रद्धान 3 प्रकार का कहा है – औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । यह सब योग्यता अपने आपमें है । थोड़ा अपने आपको अपने कल्याण की दृष्टि से, निहारना चाहिए और आशय निर्मल रखने का यत्न करना चाहिए ।