वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 389
From जैनकोष
सप्तानां प्रशमात्सम्यक् क्षयादुभयतोऽपि च ।प्रकृतीनामिति प्राहुस्तत्त्रैविध्यं सुमेधस: ॥389॥
सम्यक्त्व का स्वरूप – मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन 7 प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व, क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व और कुछ क्षय कुछ उपशम होने से तथा सम्यक्प्रकृति का उदय होने से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व की निमित्त दृष्टि से प्ररूपणा है । सम्यक्त्व तो विपरीत अभिप्रायरहित आत्मा का स्वरूप है । जहाँ भ्रम पूर्ण आशय नहीं रहा, जैसा सहजस्वरूप है उस प्रकार के निर्णय की दृढ़ता है रुचि है उसे सम्यक्त्व कहते हैं । यह जीव सम्यक्त्व के बिना चतुर्गति में भ्रमण कर रहा है । जब जिस पर्याय में पहुँचा उस पर्याय के समागम को अपना सर्वस्व मान लेता है और इसी कल्पना के कारण दुःखी रहता है । आत्मा का तो आनंदस्वरूप है, दुःख का तो कोई काम ही नहीं है । लेकिन आनंदस्वरूप आत्मा में न तो ऐसी रुचि है, न ऐसा प्रकाश है, न ऐसा आचरण है । अपने स्वभाव से भ्रष्ट होकर व्यर्थ ही बाह्य पदार्थों में जो आकर्षण चलता है बस यही दुःख का हेतु है । किसी पदार्थ को अपना माने, उसका संचय करे उसमें प्रीति रहे तो क्या है ? तब भी भिन्न है उन्हें भिन्न समझें तो भिन्न है ही । ज्ञान में भिन्न हो गया तब वहाँ कल्याण है । मोह में अकल्याण है । कुछ तत्त्व नहीं निकलने का । उस मोह का विनाश होने से सम्यक्त्व प्रकट होता है । जैसे किसी भींत को रगड़ कर स्वच्छ बना दिया जाय और उस पर रंग का चित्र बनाया जाय तो जिस भींत को स्वच्छ बनाया गया है उसे कहेंगे – भींत समीचीन हो गयी है, निर्दोष हो गई है । इसी तरह अपने आपके मंथन से, चिंतन से, अनुभवन से विपरीत आशय से रहित हो जाना है उसे सम्यक्त्व कहते हैं ।