वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 395
From जैनकोष
सिद्धस्त्वे कस्वभाव: स्याद्धग्बोधानंदशक्तिमां ।मृत्यूत्पादादिजन्मोत्थक्लेशप्रचयविच्युत: ॥395॥
कैवल्यस्वभाव की श्रद्धा में सम्यक्त्व की उद्भूति – जीव दो प्रकार के बताए गए हैं – एक तो सिद्ध और दूसरे संसारी । उनमें जो सिद्ध हैं वे व्यक्तरूप में भी एकस्वभावी हैं, सब एक समान हैं और चैतन्यस्वभाव का वहाँ परिपूर्ण प्रकाश है । दर्शन, ज्ञान आनंद, शक्ति इन चार अनंत चतुष्टयों से वे संपन्न हैं, जन्म मरण आदिक संसार के क्लेशों से रहित हैं । यह आत्मा केवल रह जाय, सब लेपों से पिन्डों से छूट जाय, जैसा इसका स्वभाव है, जो अपने सत्त्व के कारण है, इतना ही मात्र प्रकट अकेला रह जाय तो इसी के मायने हैं सिद्ध हो गया, मुक्त हो गया, प्रभु हो गया, कैवल्य हो गया । अपने आपके प्रति ऐसी ही धारणा रखना चाहिए कि हे नाथ ! जैसे तुम एक हो । जैसा जो आपका स्वरूप है वही मात्र अब प्रकट है, इसमें जो कोई विकार परिणमन नहीं है, केवल है । ऐसा ही केवल मैं होऊँ तो समझिये कि जो कुछ करने योग्य काम हुआ करता है वह कर लिया । जब तक यह कैवल्य नहीं आता तब तक यह जीव संसारी है, रुलता फिरता है । अपने कैवल्यस्वरूप की याद के बिना इस कुटेवी जीव की बुद्धि भ्रांत हो जाती है और जैसा जो कुछ किसी संग प्रसंग से भाव बना उस ही भाव को अपनी चतुराई समझकर उसी में ही रत रहता है । और जगत के अन्य जीवों से हित निरखकर अनंत प्रभुवों का निरादर करता है । केवल होने में ही इस जीव का कल्याण है । हे नाथ ! अरे यह कैवल्यस्वरूप प्रकट हो, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी निकट समागम रहे उससे मेरा कुछ भी महत्त्व नहीं है, उससे कुछ भी पूरा नहीं पड़ता । प्रभु केवल है और इसी कारण अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद से संपन्न है, अब इनके जन्म जरा मरण आदिक सांसारिक कोई से भी क्लेश नहीं रहे, ऐसी श्रद्धा हो वहाँ सम्यक्त्व प्रकट होता है ।