वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 396
From जैनकोष
चरस्थिरभवोद्भूत विकल्पै: कल्पिता: पृथक् ।भवत्यनेकभेदास्ते जीवा: संसारवर्तिन: ॥396॥
संसारी जीवों में त्रस और स्थावर का भेद – संसारी जीव त्रस और स्थावररूप संसार से उत्पन्न हुए भेदों से नाना प्रकार के हैं । संसारी जीव के मूल में 2 भेद हैं – त्रस और स्थावर । जिनके त्रस नामकर्म का उदय है, जिसके कारण जीव दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय जाति में जन्म लेते हैं, वे त्रस हैं और जो एकेंद्रिय हैं वे सब स्थावर हैं । त्रस और स्थावर की यह भी शब्द व्यवस्था है कि जो चलें, उद्वेग करें, क्रिया कर सकें वे त्रस हैं और जो वहीं के वहीं खड़े रहें वे स्थावर हैं । यद्यपि शब्द की इस अर्थ शक्ति रूप से और इसकी सदृश्यवृत्ति से अर्थ जीवों में यह कुछ कुछ घटित होता है, फिर भी साक्षात् रूप यह व्याख्या पूर्ण नहीं उतरती । जो स्थिर हैं, चल डुल नहीं सकते, गर्भस्थ हैं, अंडस्थ हैं, लेकिन कहलाते त्रस ही हैं और जो बहता जल है, चलती वायु है लपकती आग है ये सब स्थावर हैं । अर्थात् सही व्याख्या यह है कि त्रस नामकर्म का उदय जिनके हो वे त्रस हैं और स्थावर नामकर्म का उदय जिनके हो वे स्थावर हैं ।