वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 405
From जैनकोष
सम्यग्ज्ञानादिरूपेण ये भविष्यंति जंतव: ।प्राप्य द्रव्यादिसामाग्री ते भव्या मुनिभिर्मता: ॥405॥
भव्यत्वगुण का परिपाक – जो प्राणी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामाग्री को प्राप्त करके सम्यग्ज्ञान आदिक रूप से परिणमेंगे उन प्राणियों को आचार्यों ने भव्य कहा है । लक्षण में भव्यता के विपाक का उपाय भी बताया है । भव्यत्वगुण का पूर्णविपाक सिद्ध अवस्था में है । तो सम्यग्दर्शन होना, सम्यग्ज्ञान होना, सम्यक्चारित्र होना, गुणस्थानों में बढ़ना ये सब भव्यत्व के आंशिक विपाक हैं । जैसे कुछ भी चीज पकती है तो पक्व तो कहलाती है बिल्कुल अंतिम समय में लेकिन क्या ऐसा है कि उस अंतिम समय से पहिले पकता न हो वह पदार्थ और ठीक अंतिम समय में पक जाता हो । पकना तो बहुत पहिले से शुरू होगा । तो यह भव्यत्व गुण पक रहा है, सम्यक्त्व हुआ सम्यक्ज्ञान हुआ, चारित्र हुआ चारित्र में वृद्धि हुई यह गुणस्थान बढ़े यह सब भव्यत्वगुण का परिपाक है । तो जब योग्य द्रव्य, योग्य क्षेत्र, योग्य काल, योग्य भाव की सामाग्री मिलती है तब वहाँ यह जीव सम्यग्ज्ञानरूप से परिणमता है । बाह्य भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव योग्य मिले और आंतरिक भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता बने वहाँ ये जीव सम्यग्ज्ञान आदिक रूप से परिणमते हैं । जो विशुद्ध आशय वाले हैं वे भव्य जीव हैं ।भव्यत्वगुण की पारिणामिकता – भव्यत्वगुण एक पारिणामिक भाव है । अर्थात् यह भव्यता न कर्मों के उदय से है, न उपशम से है, न क्षय से है, न क्षयोपशम से है, किंतु है एक भाव । उदय आदिक की अपेक्षा न रखकर भव्यता हुई है इस कारण भव्यत्व को पारिणामिक भाव कहते हैं । यहाँ कोई यह प्रश्न कर सकता है कि दर्शन मोहनीय का उपशम हो, क्षयोपशम हो, क्षय हो तो उससे ही तो भव्यता प्रकट होती है । फिर पारिणामिक कैसे कहा ? उत्तर यह है कि उपशम, क्षय, क्षयोपशम से शुद्ध का विकास होता है शुद्ध होने की योग्यता शक्ति तो निरपेक्ष है । शुद्ध होना तो सामाग्री साध्य है, पर शुद्ध होने की ताकत जो वस्तु में पड़ी है वह सापेक्ष नहीं है, उसे उपशम आदिक की अपेक्षा नहीं पड़ती । जैसे कुरुडू मूँग में पकने की शक्ति है तो क्या यह शक्ति की आग की अपेक्षा रखकर बनी है ? पकने में आग की अपेक्षा हो जायगी, पर पकने की शक्तिे में अपेक्षा नहीं है । ऐसे ही भव्यत्व में कर्मों के उपशम आदिक की अपेक्षा नहीं है अतएव पारिणामिक भाव हैं । एक पारिणामिक भाव माना गया है सासादन गुणस्थान को । मिथ्यात्व गुणस्थान तो मिथ्यात्व के उदय से हुआ । तीसरा सम्यक्मिथ्यात्वगुणस्थान, सम्यक्मिथ्यात्व की प्रकृति के उदय से हुआ, चौथे पाँचवे आदि कोई क्षय से कोई क्षयोपशम से यों होते हैं, पर दूसरे गुणस्थान की स्थिति ऐसी है कि न तो वहाँ सम्यक्त्व है और न वहाँ मिथ्यात्व है । ऐसी स्थिति जो बनी, यद्यपि उदयादिक की अपेक्षा बिना नहीं बनी किंतु एक दर्शन मोह का निमित्त लगाकर दूसरे गुणस्थान का वर्णन किया जायगा । तो दूसरे गुणस्थान को न औदयिक कहेंगे, न औपशमिक कहेंगे, न क्षायिक, न क्षायोपशमिक कहेंगे । वह केवल दर्शन मोह की दृष्टि से पारिणामिक है, लेकिन भव्यत्वगुण कर्मों की दृष्टि से पारिणामिक है ।