वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 406
From जैनकोष
अंधपाषाणकल्पं स्यादभव्यत्वं शरीरिणाम् ।यस्माज्जन्मशतेनाऽपि नात्मतत्त्वं पृथग्भवेत् ॥406॥
अभव्यत्व – अब अभव्यता अंधपाषाण की तरह है । जैसे सोने की खान में अनेक खंड निकलते हैं । छोटे-छोटे अंश, जिन्हें स्वर्णपाषाण कहते हैं । उनमें से एक स्वर्ण का अंधपाषाण भी होता है, जो नाम तो स्वर्ण का है परंतु कभी भी वह शुद्ध सोनेरूप नहीं हो सकता । यह दृष्टांत खैर समझने में कठिन होगा, पर एक कुरूडू मूँग होती है, उसका दृष्टांत ले लीजिये । उसे यदि दिन भर भी बटलोही में खूब पकाया जाय तो भी वह मूँग नहीं पकती है । कोई-कोई उस मूँग का दाना वैसा ही बिल्कुल कंकड़ की तरह निकल आता है । तो जैसे कुरुडू – मूँग का दाना बहुत बहुत पकने पर भी वैसा का ही वैसा निकल आता है ऐसे ही इन जीवों में से जो जीव अभव्य हैं वे नाम के तो जीव हैं पर उनको जीवत्वगुण का जिसे शुद्ध विकास कहते हैं केवल ज्ञानमात्र होना, यह उनके कभी भी नहीं हो सकता । सैंकड़ों जन्म भी तपश्चरण करें, कुछ भी करें तो भी उनके आत्मतत्त्व प्रकट नहीं हो सकता, तो शरीर कर्म और विभाव इन विडंबनाओं से पृथक नहीं हो सकते । जो शुद्ध होने के योग्य नहीं हैं उन्हें अभव्य कहते हैं ।अभव्य के सीझने की अशक्यता – अभव्य जीव धर्म के नाम पर अपनी कल्पनाओं के अनुसार कुछ भी करता है, पर जिसे परमार्थधर्म कहते हैं उसकी रुचि नहीं होती है । जैसे धर्म के नाम पर अनेक पुरुषों को किसी को पूजा की रुचि है, किसी को स्वाध्याय की रुचि है, पर उनमें से किसे कहें कि वास्तविक परमार्थभूत धर्म की रुचि इस इसको है । विवरण में ऐसा कहते हैं कि करोड़ों जन्म तप करने से जितने कर्मों की निर्जरा अभव्य करता है उतने कर्मों की निर्जरा ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि अर्ंतर्मुहूर्त में कर लेता है । यह दृष्टांत केवल एक कर्मवर्गणाओं की गिनती का अनुमान कराने के लिए हैं । अभव्य के तो कभी भी निर्जरा नहीं होती, फिर यह कैसे कहा जाय कि जो निर्जरा अभव्य के करोड़ों वर्ष तक करके होती है वह ज्ञानी के अंतर्मुहूर्त में होती है, इसमें उस गिनती का अनुमान बताया है कि इतने कर्मों का निर्जरण भव्य के क्षणमात्र में होता है । अभव्य के निर्जरा नहीं है । अपने आपके सहज अंतस्तत्त्व को शरीर से, विभावों से, विकल्पों से विविक्त निरख ले ऐसी दृष्टि जिसके हो वह निकट भव्य जीव है । ये सब दृश्यमान जीव जिनकी दृष्टि में भव्यस्वरूप है, इस लोक के किसी भी जीव की चेष्टा से मेरा हित अहित नहीं है यों अपने आपकी वृत्ति का, अपने आपके भवितव्य का अपने आपसे ही निर्णय रखना है, ऐसी विरक्तता, ऐसा वस्तुस्वरूप का सम्यग्ज्ञान जिसमें हो वह निकट भव्य जीव है ।गुप्त हित को गुप्त करके गुप्त रहने का अनुरोध – हम लोगों को अपने आपमें गुप्त होकर गुप्त विधि से इस गुप्त को, इस कल्याण को अपने आपमें करना है । देखिये – गुप्त शब्द का अर्थ छिपा हुआ नहीं है, जैसे व्यवहार में गुप्त कहते हैं छुपे हुए को, यह चीज गुप्त है, छिपी हुई है । रूढ़ि में गुप्त का अर्थ छुपा हुआ कहते हैं पर गुप्त का सही अर्थ छुपा हुआ नहीं हैं किंतु पूर्ण सुरक्षित है । पूर्ण सुरक्षित वही हो सकता है जो छुपा हुआ है । प्रकट हुए को जो चाहे बिगाड़ दे । जैसे कोई कीमती चीज दे और कहे देखो उसे सुरक्षित रखना तो आप क्या करेंगे ? तिजोरी में अल्मारी में बड़े अच्छे ढंग से आप छुपा देंगे, लो सुरक्षित हो गयी । और, ज्यादा सुरक्षित करना हो तो लो कमरे में जमीन खोदकर गाड़ दिया, लो सुरक्षित हो गया । तो छुपा हुआ पदार्थ सुरक्षित रहता है । इस मान्यता के कारण गुप्त का अर्थ लोक में छुपा हुआ प्रसिद्ध हो गया । गुप्त को सुरक्षित कहने की किसी की दृष्टि नहीं जगती । गुप्त मायने सुरक्षित । तो अपने आपमें गुप्त होकर अर्थात् सम्हलकर सुरक्षित होकर उस गुप्त कल्याण को याने जिसे कोई बिगाड़ न सके, किसी का प्रवेश ही नहीं है ऐसे सुरक्षित कल्याण को अपने आपमें गुप्त करके रखना है, सम्हाल करके रखना है, सुरक्षित बनाना है ।कर्तव्य का ध्यान – देखो भैया ! आत्महित करने के लिए कितना सीधा सुहावना सुगम हितकारी आनंददायक ज्ञातृत्व का काम पड़ा हुआ है किंतु एक मोह की दृष्टि उठी कि ये सारे कल्याण के कार्यक्रम सब समाप्त हो जाते हैं । मोह की दृष्टि क्षणमात्र भी उठे तो कितना अनर्थ कर देती है, लंबे समय तक विकल्पों में बहाये रहती है । एक किशोर अवस्था का ही तो मोह था, पाणिग्रहण हुआ कि उसके फल में जिंदगी भर कितना परतंत्र सा रहना पड़ता है अनेक दृष्टांतों में । एक मोटा दृष्टांत दिया है कि थोड़े से मोह को न सम्हाल सकने के कारण सारे जीवन को अपनी विडंबना का शिकार बनाना पड़ता है । तो क्षण भर के मोह में यह सारी संसार सृष्टि की परंपरा बना डालते हैं हम आप लोग । जो चीज अहित रूप है वह हितरूप जँचे और जो चीज हितरूप है वह अहितरूप जँचे ऐसी दृष्टिरूप बिगाड़ जिस जीव के होता है उसका परिणाम तो संसार में भटकता ही है । हमें चाहिए कि हम अपने आपको सम्हालकर रखने का अधिकाधिक यत्न करें । सत्संगति, स्वाध्याय, गुणप्रेम इन सब गुणों से अपने आपको प्रसन्न निर्मल बनायें ।