वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 411
From जैनकोष
धर्माधर्मनभ:काला: पुद्गलै: सहयोगिभि: ।द्रव्याणि षट्प्रणीतानि जीवपूर्वाण्यनुक्रमात् ॥411॥
द्रव्यों में जीव और पुद्गल द्रव्यों का अस्तित्व – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये 6 द्रव्य योगीश्वरों ने प्ररूपित किये हैं । द्रव्य तो 6 नहीं हैं, अनंत हैं, किंतु उन समस्त अनंत द्रव्यों की जातियाँ जिनका कोई साधारण लक्षण अपनी सब जातियों में रहे और अपनी जाति से विरोधी अन्य जाति में न रहे उस असाधारण लक्षण के बल से द्रव्यों में 6 जातियाँ बताई गई हैं । जैसे जीव कहा तो जीव का जो लक्षण है वह जीवत्व सब जीवों में है । कोई जीव इस जीवत्व से शेष रह जाय ऐसा नहीं है और साथ ही जीव को छोड़कर अन्य किसी भी पदार्थ में नहीं रहता है जीवत्व । लक्षण से जातियाँ बनती हैं । जो अपने समस्त लक्ष्य में रहे और लक्ष्य के अतिरिक्त अलक्ष्य में न रहे वही लक्षण निर्दोष होता है । जीवत्व सब जीवों में है और जीव को छोड़कर अन्य में नहीं है तो जीवत्व लक्षण सही हो गया । तो एक जीव जाति कहलाई । इसी प्रकार पुद्गल अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्श से वाला होना यह स्वभाव पुद्गल में है । कोई भी पुद्गल ऐसा नहीं है जो रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित हो । परमाणुओं में भी रूप, रस, गंध, स्पर्श न हों तो उनका सत्त्व नहीं बन सकता और परमाणुवों के पिंड से फिर जो रूपादिक व्यक्त प्रतीत होने लगते हैं यह भी न बनेगा । तो पुद्गल का स्वरूप मूर्तपन समस्त पुद्गल में है और पुद्गल के सिवाय अन्य किसी पदार्थ में नहीं है । पुद्गल एक जाति हो गए ।धर्म अधर्म आकाश और काल द्रव्य का अस्तित्त्व – धर्मद्रव्य गतिहेतु है, अधर्मद्रव्य स्थितिहेतु है, आकाश इनकी जाति भी एक है और व्यक्ति भी एक है, ये एक एक ही द्रव्य हैं, कालद्रव्य असंख्यात हैं । जिस प्रदेश पर जो कालाणु हैं उस कालाणु पर ठहरे हुए पदार्थों के परिणमन में वे कालाणु निमित्त हैं । यदि कोई अनेक प्रदेशी पदार्थ ठहरा हो तो जितने में वह विस्तृत है उतने में असंख्यात कालद्रव्य भी पड़े हैं । एक आकाशद्रव्य इतना व्यापक है कि आकाश के बहुत कम हिस्से में कालद्रव्य हैं और बाकी असीम अनंत जो काल है उस जगह कहाँ कालद्रव्य है लेकिन लोकाकाश में स्थित कालद्रव्य के निमित्त से यह आकाश परिणत हो रहा है । आकाश कहीं खंडरूप नहीं है कि जहाँ समस्त द्रव्य हों वह तो लोकाकाश है और जहाँ केवल आकाश ही हो वह अलोकाकाश है । परिणमनों में जो अत्यंत विभिन्नता देखी जाती है उसका कारण सामान्यतया यह भी है कि कालद्रव्य असंख्यात है और अपने अपने काल प्रदेशोंपर अवस्थित पदार्थों के परिणमन में वहाँ भी कालद्रव्य निमित्त है । तो काल असंख्यात हैं, इस प्रकार अनंत पदार्थों के वे प्रकार योगीश्वरों ने कहे हैं । ध्यान के ग्रंथ में ध्यान का निरूपण है । पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दृष्टि जीव पदार्थों को किस रूप में श्रद्धान करते हैं उसे बताने के लिए यह सब पदार्थों की चर्चा चल रही है ।