वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 414
From जैनकोष
अणुस्कंधविभेदेन भिन्ना: स्यु: पुद्गला द्विधा ।
मूर्ता वर्णरसस्पर्शगुणोपेताश्च रूपिण: ॥414॥
पुद्गल का स्वरूप और भेद – पुद्गल द्रव्य दो प्रकार के हैं – अणु और स्कंध । पुद्गल में ये दो भेद नहीं पड़े हैं कि कोई पुद्गल अणु कहलाता हो और कोई पुद्गल परमाणु कहलाता हो । किंतु, पुद्गल तो सब एक ही प्रकार का है । अणु एकप्रदेश में है और उन अणुवों का समूह बनकर पिंड हो जाय तो उसे स्कंध कहते हैं । जैसे कहते हैं जीव दो तरह के हैं – संसारी और मुक्त । तो कहीं जीव दो तरह के नहीं हो जाते कि कोई जीव संसारस्वरूपी है और कोई मुक्तस्वरूपी है । जीव तो सब एक प्रकार के हैं किंतु जिन जीवों का उपाधिवश संसारपरिणमन हो रहा है वे मुक्त कहलाते हैं ऐसे ही पुद्गल तो सही मायने में अणु ही हैं पर अणु का पिंड बन गया तो वह स्कंध कहलाने लगा । तो स्थूल दृष्टि से पुद्गल दो प्रकार के हुए – अणु और स्कंध । वे सभी पुद्गल चाहे वे अपने असली सकल में हों और चाहे वे बंधनरूप में हो किंतु सभी मूर्त हैं – रूप, रस, गंध, स्पर्श गुणों से युक्त हैं ।जीव और पुद्गल के स्वरूप परिचय से आत्मशिक्षा – जीव पुद्गल के स्वरूप के वर्णन से यह शिक्षा लें कि मैं चेतन हूँ, ये पुद्गल अचेतन हैं । देखिये इस समय जो हम आपकी स्थिति है उस स्थिति में भी ये दो बातें निरखी जा सकती हैं कि हम शरीर से ऐसे एकमेक हो गए कि हम शरीर से जुदा कहीं ठहर नहीं सकते और इससे जुदा हम अपने आपको निरख नहीं पाते । यों शरीर का जीव का ऐसा एक बंधन हो गया है यों निरखा जा सकता है ना, और इस ही स्थिति में क्या यह नहीं निरखा जा सकता कि मैं जीव हूँ, चेतन हूँ और ये समस्त शरीर स्कंध अचेतन हैं, अजीव हैं ? मेरा लक्षण चैतन्य है, शरीर का लक्षण मूर्तिकता है, मैं शरीर से न्यारा हूँ, क्या इस प्रकार का उपयोग नहीं बनाया जा सकता ? लेकिन जिसकी, रुचि बंधन देखने की ही है, शरीर से भिन्न चैतन्यमात्र निज के देखने की उमंग न हो, बोल न निकले, दृष्टि न बने उसका क्या भवितव्य है उसका मन में निर्णय कर लें और जो इस बंधन की ओर उपयोग नहीं लगाते, जो एक मात्र अपने स्वतंत्र चैतन्यस्वरूप का उपयोग करते हैं उनका भी निर्णय कर लें कि भविष्य में उन्हें क्या मिलेगा ?
स्वतंत्रता की रुचि – रुचि स्वतंत्रता की होनी चाहिए, ज्ञान की बात और है । जो जैसा पदार्थ है उसे उस प्रकार से जान लें, लेकिन पदार्थ तो समस्त परिस्थितियों में अपने ही स्वभावरूप रहा करते हैं, अन्य पदार्थों के स्वभाव रूप नहीं बनते, तब यह वस्तु की स्वतंत्रता ही तो हुई । दृष्टि और उत्साह स्वातंत्र्य में पहुँचना चाहिए । हम बंधन में बंधे हैं और उस ही की दृष्टि रखें, दृष्टि रखने के मायने गुण माना है, हम बंधन के ही गुण गाते रहें तो यह एक संसार का तरीका हो गया । हम सब विवेचनों से कुछ न कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं । कुछ भी चर्चा चल रही हो, तीन लोक की चर्चा, महापुराण पुरुषों की चर्चा कालरचना की बात सभी चर्चावों से हम अपने हित के योग्य शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं । जो चर्चा में ही फँसते हैं, चर्चा से जो शिक्षा लेना चाहिए उसकी ओर दृष्टि नहीं देते हैं उनके लिए तो चर्चा भी धन मकान की तरह बाह्यविभूति है, लोक चर्चा में जहाँ लोक के विशाल प्रमाण का वर्णन आया वहाँ यह दृष्टि जगना चाहिए कि एक अंत:स्वरूप के जाने बिना इस जीव ने इस लोक में सर्वत्र सर्वप्रदेशों पर अनंत बार जन्म मरण किया । जब काल की चर्चा आयी, काल समस्त अनादि अनंत है और यह जीव सत् भी अनादि अनंत है और इस जीव का अनादि से परिणमन होता आया है, अनंतकाल तक परिणमन होता रहेगा ।जीवकायों के विज्ञान से स्वहितमार्गणा – जीव का स्वकाय और बाह्य में परकाय इन दोनों की चर्चा से हम यह शिक्षा ले सकते हैं कि एक निज अंतस्तत्त्व अनुभव बिना जीव अनादिकाल से संसरण ही करता रहा और जब तक परिचय न हो जायेगा तब तक चाहे अनंत काल भी व्यतीत हो जाय यह संसरण चलता रहेगा । कुछ भी वर्णन हो उससे अपने प्रयोजन की बात निकालना चाहिए । व्यापार में व्यवहार में प्रयोजन की बात निकालने की ही आदत बनी रहे क्या ऐसा किया नहीं जा सकता ? जब जीवों के देहों की बात चल रही हो छोटे से छोटे अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर एक हजार योजन तक के लंबे, 500 योजन चौड़े और 250 योजन मोटे शरीर इस लोक में हैं, इससे यह शिक्षा लें कि एक अपने आपके सहजस्वरूप के अनुभव के बिना ऐसे विभिन्न शरीर में जन्म लेना पड़ता है । यह पदार्थों का स्वरूप चल रहा है । जो सम्यग्दर्शन के विषय हैं और सम्यग्दर्शन ध्यान का मुख्य अंग है, सत्य श्रद्धा के बिना ध्यान में कोई सफल नहीं हो सकता ।