वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 413
From जैनकोष
अचिद्रूपा बिना जीवममूर्ता पुद्गलं बिना ।
पदार्था: वस्तुत: सर्वे स्थित्युपत्तिव्ययात्मका: ॥413॥
पदार्थों का स्वरूप – जीव को छोड़कर शेष के समस्त पदार्थ अचेतन स्वरूप हैं और पुद्गल को छोड़कर शेष के समस्त पदार्थ अमूर्त हैं । तो चेतन अचेतन इन दो प्रकारों में सब पदार्थ आ गए । इसी प्रकार मूर्त और अमूर्त इन दो प्रकारों में सब पदार्थ आ गए । कि तु वे सभी पदार्थ वस्तुत: उत्पाद व्यय ध्रौव्य से तन्मय हैं । उत्पाद का अर्थ बनना, व्यय का अर्थ है बिगड़ना और ध्रौव्य का अर्थ है बना रहना । प्रत्येक पदार्थ बनता है, बिगड़ता है और बना रहता है । बनकर भी बिगड़ा और बना रहा, बिगड़कर भी बना और बना रहा और बना रहकर भी बना और बिगड़ गया । ये तीन बातें प्रत्येक पदार्थ में प्रति समय रहती हैं । चाहे इन तीनरूपों में पदार्थों को निहार लें और चाहे उत्पाद व्यय होता है वह तो पर्याय है और जो सदैव रहता है वह गुण है । तब गुण पर्यायरूप द्रव्य है ऐसा निहार लो । पर्याय चूँकि गुण से पृथक नहीं है । गुणों के ही समय समय का परिणमन है । हम पर्याय से द्रव्य में क्या भेद डालें । तब गुणों का समुदाय ही द्रव्य है यों निरखा जा सकता है । अथवा कोई भी गुण परिणमें बिना कभी रहता ही नहीं तो गुणों का रूपक बाह्य शक्ति पर्याय हैं, तब यों कहलो कि जो पर्यायों का समुदाय है वह द्रव्य है । इसमें चाहे उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त सत् कहो या गुणपर्यायवत् द्रव्य कहो या गुणसमुदाय: द्रव्य कहो या पर्यायसमुदाय: द्रव्यं कहो भिन्न-भिन्न दृष्टियों से हम द्रव्य को दृष्टि में लिया करते हैं । सभी पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप हैं । यह सब पदार्थों का तत्त्वभूत वर्णन चल रहा है ।
यर्थाथस्वरूपविज्ञान से आत्महित का प्रकाश – सम्यग्दृष्टि जीवों का कैसा कैसा श्रद्धान रहता है और यथार्थ श्रद्धालु ही ध्यान का पात्र हैं यह बताने के लिए पदार्थों का स्वरूप कहा जा रहा है । इस स्वरूप से हम अपने हित के लिए शिक्षा भी लेते रहें । प्रत्येक पदार्थ खुद उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वभाव वाला है, अतएव यह बात प्रसिद्ध हुई कि किसी भी पदार्थ से किसी अन्य पदार्थ का परिणमन नहीं होता । कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का विनाश नहीं कर सकता जो प्रत्येक पदार्थों में परस्पर अत्यंताभाव है वह पुरुष बड़ा ज्ञानबली है जो निमित्त नैमित्तिक भावों को निरखकर भी वस्तु के स्वतंत्र स्वरूप की दृष्टि से चिगता नहीं है । अग्नि में संयोग का निमित्त पाकर पानी गर्म हुआ, यह जानकर भी पानी में स्वयं स्पर्श उष्ण का हुआ है और पानी के स्पर्श की परिणति में ही उष्णता आयी है, यह अग्नि से निकलकर नहीं आती है, इस प्रकार की बात भी दृष्टि में रह सके, प्रमाण का साधन उपयोग में रह सके जिसके, वह एक विशिष्ट ज्ञानबली है, अन्यथा लोग तो जो निमित्त को, व्यवहार को पसंद करते हैं वे एकांत से निमित्त और व्यवहार के ही प्रतिपादन और पोषण में जुट जाते हैं और फिर इस हट के कारण उपादान की निश्चय की बात कहने से भी चिढ़ हो जाती है और जिन्हें निश्चय उपादान स्वातंत्र्य प्रिय होता है वे उसके एकांत में व्यवहार की भी सही बात कहनें में हिचक लाते हैं । और वे उसके पोषण में इतना जुट जाते हैं कि व्यवहार की बात कह भी नहीं सकते । किंतु ज्ञानबली पुरुष वह है जो प्रमाण द्वारा अपने आपको सही संतुलित बनाये । जिसके बारे में पदार्थस्वरूपवादिता ही प्रकट हो वह एक विशिष्ट ज्ञानबल है । ये सब हित की बातें पदार्थों के स्वरूप को सुनकर विवेकी पुरुष समझते जाते हैं ।