वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 416
From जैनकोष
प्रत्येकमेकद्रव्याणि धर्मादीनि यथायथम् ।आकाशांतांयमूर्तानि निष्क्रियाणि स्थिराणि च ॥416॥
धर्म अधर्म आकाश द्रव्य की एकद्रव्यता और शुद्धता – धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन तो एक-एक द्रव्य हैं, ये अनेक नहीं हैं, और तीनों ही अमूर्त हैं, निष्क्रिय हैं और स्थिर हैं, इनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है, इस कारण अमूर्तिक हैं । धर्मद्रव्य एक अतिसूक्ष्म ऐसा पदार्थ है कि जो जीव पुद्गल के गमन में हेतुभूत होता है । अब भी वैज्ञानिेकों ने कुछ न कुछ ऐसे माने हैं – जो गति के कारण हैं, तरंगों के कारण हैं, ऐसे कुछ ईथर उनकी कल्पना में आते हैं । वह भी एक संकेत है कि गतिहेतुभूत कुछ पदार्थ होना ही चाहिए । अधर्मद्रव्य भी सूक्ष्म है और वह जीव पुद्गल की स्थिति का हेतुभूत है । कुछ भी काम हो रहा हो उससे भिन्न कोई दूसरा काम हो तो अवश्य ही कोई दूसरा बाह्य कारण है । एक समान एक ही रूप परिपूर्ण कार्य होता रहे उसमें किसी बाह्य निमित्त के खोजने की आवश्यकता नहीं है । वह पदार्थ के अस्तित्त्व से ही सब कुछ हो रहा है, किंतु जो परिणमन अभी कुछ है अब कुछ हो गया तो बाह्य परिणमन जो भी हुआ हो उसमें कोई बाह्य कारण अवश्य है । न हो बाह्य कारण तो पहिले से ही ऐसा क्यों नहीं हुआ और अनंत काल तक ऐसा ही क्यों नहीं होता रहता । ये विभिन्नतायें बाह्य उपाधि का समर्थन करती हैं कि किसी बाह्य पदार्थ का निमित्त पाकर ये सूक्ष्म पदार्थ अपने आपमें स्वयं परिणमन कर लेते हैं । तो यहाँ धर्म, अधर्म, आकाश ये एक समान ही अपना परिणमन रखते हैं अतएव शुद्ध हैं ।धर्म अधर्म आकाश द्रव्य की निष्क्रियता एवं स्थिरता – ये धर्म, अधर्म, आकाश निष्क्रिय भी हैं, जितने में ये द्रव्य हैं, उतने से न कम होते अधिक होते । अर्थात् ये व्यापक हैं और व्यापक पदार्थों में क्रिया नहीं हो पाती । जैसे किसी घड़े में पूर्ण जल भरा हो तो उसमें क्रिया तरंग लहर नहीं उत्पन्न हो पाती और आधा चौथाई ही घड़ा भरा हो तो उसमें छलकन तरंग क्रियायें ये होती रहती हैं । जो सर्वव्यापक हो उसकी अब क्रिया क्या । धर्मद्रव्य इस लोकाकाश में सर्वत्र व्यापक है, यों ही अधर्मद्रव्य सब लोकाकाश में व्यापक है, और आकाश द्रव्य असीम है, सर्वव्यापक है, इस व्यापक पदार्थ में क्रिया कहाँ से बनेगी । धर्म अधर्म और आकाश ये निष्क्रिय हैं, और जो निष्क्रिय होते हैं वे स्थिर होते ही हैं । अस्थिरता तो क्रिया में चलती है । यों ये तीन पदार्थ अमूर्तिक हैं, निष्क्रिय हैं, और स्थिर हैं । जितनी बात से हमें प्रयोजन है जिससे हमें भेदविज्ञान करना है उतनी बात को सही समझने के लिए केवल उतना ही समझने की जरूरत नहीं है, उससे अधिक समझने की स्पष्टता के लिए जरूरत है । जैसे चतुर लोग किसी व्यवहार कार्य में किसी मामले को समझने के लिए पूर्वापर विस्तार से समझा करते हैं तब प्रयोजनीभूत घटना स्पष्ट समझ में होती है । तो यों पुद्गल से हमें अपने को न्यारा निरखना है, इस भेदविज्ञान के प्रयोजन के लिए केवल शरीर हम अपने को न्यारा समझ लें इतनी ही मात्र जानकारी बनें, इससे इस विविक्तता का विशद बोध नहीं हो पाया, किंतु उसके निकट का सब ज्ञान होना चाहिए तब हम उस विषय में सही ज्ञान वाले बन सकते हैं । ये धर्म अधर्म और आकाश जो कि अमूर्त हैं, जिनसे हमारा कोई भिड़ाव नहीं, रोक नहीं उसका भी वर्णन किया जा रहा है ।