वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 417
From जैनकोष
सलोकगगनव्यापी धर्म: स्याद्गतिलक्षण: ।तावान्मात्रोऽप्यधर्मोऽयं स्थितिलक्ष्म: प्रकीर्तित: ॥417॥
धर्म और अधर्मद्रव्य का लक्षण ― धर्मद्रव्य समस्त लोकाकाश में व्यापक है और उसका जीव और पुद्गल की गति में सहकारी होना लक्षण है । जो जीव और पुद्गल के गमन में निमित्तभूत हो उसे धर्मद्रव्य कहते हैं । अधर्मद्रव्य भी लोकाकाश में सर्वत्र व्यापक है, और धर्मद्रव्य की भाँति धर्मद्रव्य के ही बराबर यह अधर्मद्रव्य व्यापक है और अधर्मद्रव्य का लक्षण है चलते हुए जीव पुद्गल का ठहरना ।
स्वयं गंतुँ प्रवृत्तेषु जीवाजीवेषु सर्वदा ।धर्मोऽयं सहकारी स्याज्जलं यादोऽड़्गनिमिव ॥418॥
धर्मद्रव्य के लक्षण का विवरण – यह धर्मद्रव्य स्वयं जाने के लिए प्रवृत्त हुए जीव पुद्गल की गति में सहकार्य निमित्त है । जैसे जल में रहने वाली मछली आदिक के लिए जल सहकारी है, जल प्रेरणा करके उन मत्स आदिक को नहीं चलाता है, किंतु वे मत्स्य आदिक चलते हैं तो उस गति में जल सहायक निमित्त होता है । बात बिल्कुल स्पष्ट है । किसी नदी तालाब के निकट बैठकर आँखों से देख लो, पानी कुछ दबाव देकर मत्स्य आदिक को नहीं चलाता । जल तो शांत भी है जिसमें तरंगें नहीं उठतीं, ऐसे जल के मध्य रहने वाले मत्स्य आदिक जीव अपनी इच्छानुसार ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर किसी भी दिशा में अपना गमन करते रहते हैं, ऐसे ही धर्मद्रव्य किसी जीव और पुद्गल को जबरदस्ती चलाता नहीं है किंतु कोई चलना चाहे तो उसकी गति क्रिया में सहकारी हेतुभूत होता है । इसके अनुसार हम अन्य प्रसंगों में भी दृष्टि पसारें तो सब जगह यही नजर आने लगेगा कि मेरा इस आत्मा को किसी ने कुछ प्रेरणा कुछ परिणति दी नहीं है, यह आत्मा स्वयं ही परिणमता है । चाहे कितने ही निमित्त मिले हों और उन निमित्तों को पाकर ही परिणमता हो कोई, इतने पर भी जो परिणमन कार्य है वह किसी अन्य पदार्थ में नहीं हो सकता है । अब जैसे जल मछली के चलने में उदासीन कारण है ऐसे ही धर्मद्रव्य चलते हुए जीवपुद्गल के गमन में सही कारण है ।