वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 437
From जैनकोष
इति जीवादयो भावा दिङ्मात्रेणात्र वर्णिता: ।विशेषरुचिभि: सम्यग्विज्ञेया: परमागमात् ॥437॥
जीवादितत्त्वों का परमागम से परिज्ञान करने का संदेश ― इस प्रकरण में जीवादिक पदार्थों का एक प्रयोजनदृष्टि से दिग्दर्शन मात्र कराया गया है । जिन पुरुषों को इन द्रव्यादिक के संबंध में विस्तार पूर्वक जानने की इच्छा हो उन्हें अन्य करणानुयोग संबंधी और न्यायशास्त्र ग्रंथों से अध्ययन करना चाहिए । करणानुयोग में भेद प्रभेद प्रतीति, भाव, प्रभाव, काल, क्षेत्र सभी का विस्तारपूर्वक वर्णन है, अध्यात्मशास्त्रों में अभेद पद्धति से भूतार्थ पद्धति से तत्त्व का विवेचन है और न्यायशास्त्र में जो कि द्रव्यानुयोग का ही एक भेद है युक्तियों पूर्वक अर्थापत्ति और अर्थानुपत्ति के आधार पर तत्त्वों का विवेचन किया गया है । इन द्रव्यानुयोग और करणानुयोग के शास्त्रों के जीवादिक तत्त्वों के संबंध में विशेष जान लेना चाहिए । यह ग्रंथ ध्यान तंत्र है, सम्यक् ध्यान बनाने के लिए जितना कुछ आवश्यक ज्ञातव्य है उतना इसमें वर्णन किया गया है ।