वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 438
From जैनकोष
सद्दर्शनमहारत्नं विश्वलोकैकभूषणम् ।मुक्तिपर्यंतकल्याणदानदक्षं प्रकीर्तितम् ॥438॥
सम्यक्त्व महारत्नलाभ के लाभ ― यह सम्यग्दर्शन महारत्नसमूह लोक का एक भूषण है कल्याण है निराकुलता में । अनाकुलता उत्पन्न होती है ध्रुव तत्त्व का लगाव रखने में और आकुलता अध्रुव तत्त्व के लगाव में उत्पन्न होती है । अध्रुव तत्त्व में लगाव न रहे इसके लिए आवश्यक है कि ध्रुव तत्त्व का लगाव उत्पन्न करें । आत्मा का तो एक स्वभाव है कि किसी न किसी ओर उसका लगाव रहे, रमण रहे । कहीं विकल्परूप से रमण रहता है, कहीं निर्विकल्परूप से रमण रहता है । अध्रुवतत्त्व में प्रतीति न उत्पन्न हो तो प्रतीति का उपादान रखने वाले आत्मावों का यह कर्तव्य है कि वे ऐसा ज्ञान उत्पन्न करें, इस पद्धति से ज्ञानविकास करें कि ध्रुवतत्त्व में लगाव बढ़े । चर्चा ध्रुवतत्त्व की हो, दृष्टि ध्रुवतत्त्व की हो, श्रद्धा, धुन, विचार ध्रुवतत्त्व के लिए हो । ऐसी धुन बने वह ध्रुवतत्त्व के लगाव बढ़ाने का यत्न है । इस जीव ने अब तक अध्रुव तत्त्व से लगाव रखा और उस ही के फल में चतुर्गति भ्रमण चलता रहा । अपने आपके संबंध में इस जीव ने अपने को नाना रूप माना । होने वाले विभाव, विकल्प, विकार इनका लगाव रखा । उनमें इष्ट और अनिष्ट की कल्पनाएँ कीं । इतना ही नहीं, जो बात नहीं हो सकती है उसको भी इसने होना माना । जैसे मकान, वैभव, धन, परिजन मेरे नहीं हो सकते हैं लेकिन इसने मेरे ही माना । कोई कहे कि तेरे नहीं हैं तो उससे चोट पहुँची और दूसरे की बात इसने झूठ माना, इतना अधिक लगाव है परवस्तुवों से । परवस्तुवों से लगाव तो नहीं किंतु इसकी कल्पनाओं में लगाव है । वस्तुत: लगाव तो जीव का अपने भावों से होता है । इसका इतना तीव्र लगाव है परपदार्थों में कि यह मान रहा है कि वैभव मेरा है, परिजन मेरे हैं, मित्र मेरे हैं और यहाँ तक लगाव है कि शत्रु को भी कहता है कि यह शत्रु मेरा है । यह अध्रुव तत्त्व का लगाव छूटे एतदर्थ कर्तव्य है कि हम ध्रुव तत्त्व को समझें और निज ध्रुव तत्त्व को समझें । परपदार्थगत ध्रुव तत्त्व को जानें तो उससे भी ज्ञाता और ज्ञेय का भेद रहा । बीच में एक खाई बनी जिससे यह ज्ञाता स्वज्ञेय में लीन नहीं हो सका । निज ध्रुव तत्त्व कहो, कारणसमयसार कहो, चैतन्य स्वभाव कहो, शाश्वतरूप कहो, उसकी धुन हो, उसका लगाव हो, उसके अवलोकन की उमंग हो और उस परिणमन में ही कल्याण है ऐसी प्रतीति हो तो वहाँ परपदार्थों से उपेक्षा और विश्राम होकर स्व में प्रवेश होता है । ज्ञान की अनुभूति होती है, ज्ञानमात्र मैं हूँ इस प्रकार का परिचय और इस प्रकार का अपने आप का परिणमन का अनुभव बनने से ज्ञान की अनुभूति होती है, और ज्ञान ही है स्वरूप तो ज्ञानानुभुति में स्वानुभूति होती है । लोक में विशेष का, भेद का, विस्तार का बहुत महत्व माना जाता है, किंतु कल्याणक्षेत्र में सामान्य का, अभेद का, संक्षेप का, केंद्र पर ही टिकाव होने का महत्व माना गया है ।
सम्यक्त्व की महारत्नरूपता व प्रताप ― निज सम्यक्त्व का सम्यक् प्रयोजन के लिए सम्यक् परिणति द्वारा दर्शन होना यह सम्यग्दर्शन महारत्न है और यह सम्यग्दर्शन रत्न मुक्ति पर्यंत सर्वकल्याण को देने में समर्थ है । मुक्ति से पहिले जो मोक्षमार्ग के अनुभवन चलते हैं, निर्विकल्प स्थिति में प्रगति होती है और निर्विकल्प पदवियों का अनुभवन चलता है वह भी सम्यग्दर्शन का प्रताप है, और सर्वजीवविकार दूर होकर जो शुद्ध कैवल्य का अनुभवन होता है वह भी सम्यग्दर्शन का प्रताप है और मुक्ति होती है, परमकल्याण होता है तो वह भी सम्यग्दर्शन का प्रताप है । यह सम्यग्दर्शन सूर्य अपने प्रतापों को बढ़ा-बढ़ाकर मुक्तिरूपी कल्याण को भी प्रदान करने में समर्थ हो जाता है । वस्तुत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, ये तीन जुदे-जुदे तत्त्व नहीं हैं । आत्मा एक अखंड पदार्थ है और इसका स्वभाव भी अखंड है, और जब भी जो कुछ परिणमन होता है वह भी उस काल में एक अखंड परिणमन है, किंतु एक व्यवहार तीर्थ चलाने के लिए लोगों को समझाने के लिए चर्चा विस्तार के लिए उस अखंड का जिस प्रकार बोध हो उस पद्धति से खंड करके भेद करके विरूपण और विवरण करके उसे समझाने का यत्न करना आवश्यक ही है और इस कारण व्यवहार क्षेत्र में उस अखंड तत्त्व के गुण और पर्यायों के रूप को भेद किया गया है और वह समस्त भेद वर्णन इतना यथार्थ है कि उस पद्धति की यथार्थता के कारण भेददृष्टि से यह यथार्थ जँचता है कि यह तो सर्वथा ऐसा ही तो है । क्या आत्मा में ज्ञानगुण, दर्शनगुण, चारित्रगुण, आनंदगुण ये अनंतगुण नहीं हैं ? अनंतगुण वाला आत्मा है ऐसा कहने में कुछ गौरव सा भी अनुभूत होता है । हम आत्मा की बहुत बड़ी बड़ाई कर रहे हैं । हम आत्मा को अनंतगुण वाला कहते हैं । समझाने की पद्धति इतनी यथार्थ है कि अनंत गुणों से हम आत्मा की महिमा आँकने लगे । किंतु, इस मर्म से अपरिचित न रहना चाहिए कि जिसकी दृष्टि में आत्मा एक अखंड है अखंड स्वभावरूप है, अखंड पर्यायमय है ऐसी अद्वैतभरी ज्ञप्ति बन रही हो, महिमा उसकी विशेष है । तो जो अभेदपद्धति है उससे जिसको निर्णय करने की दृष्टि मिली है ऐसे पुरुष को यह सम्यग्दर्शन महारत्न मुक्तिपर्यंत कल्याण को प्रदान करने में समर्थ है । ध्यान के ग्रंथ में ध्यान का मुख्य अंग सम्यग्दर्शन बताया है और ध्यान के प्रयोजन के लिए ही सम्यग्दर्शन का यह वर्णन चल रहा है ।