वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 439
From जैनकोष
चरणज्ञानयोर्बीजं यमप्रशमजीवितम् ।तप:श्रुताद्यधिष्ठानं सभ्दि: सद्दर्शनं मतम् ॥439॥सम्यक्त्व की ज्ञानचारित्रबीजरूपता ― यह सम्यग्दर्शन संत पुरुषों के द्वारा चारित्र और ज्ञान का बीज कहा गया है, अर्थात् ज्ञान की स्वच्छता और आत्मा का आचरण इन दो सद्वृत्तियों को उत्पन्न करने में सम्यग्दर्शन विशेष साधकभाव है । ऐसी प्रकृति है कि जिस पुरुष को जिस भाव में रुचि होगी उसकी उस भाव में श्रद्धा होगी, उस ही का उपयोग रहेगा और उस ही में रमण चलेगा । मोही जीवों को विषयकषायों में रुचि है तो विषयकषायों की ही उन्हें श्रद्धा बनी रहती है । इन भावों से ही हमारा हित है, इसमें ही बड़प्पन है, इसमें ही श्रेष्ठता है और जब विषयकषायों में ही श्रद्धा रही तो उपयोग भी उसका बना रहता है और विषयकषायों की प्रवृत्ति भी बनी रहती है । जिस सत्पुरुष को अंतरात्मा को निज ध्रुव तत्त्व में रुचि जगी हो, समस्त अध्रुव भावों से जिसने अहित समझा है उसका ही उपयोग इस ध्रुव तत्त्च के लिए रहा करता है और जैसा ध्रुव तत्त्व है ज्ञायकस्वरूप चैतन्यभाव उस अनुकूल उसके परिणमन का यत्न रहता है । मात्र ज्ञाता दृष्टा रहे ऐसी उसकी परिणति भी इस पद्धति से ही चलती है । तो मोक्षमार्ग में जो सम्यग्ज्ञान कहा है, सम्यक्चारित्र बताया है उन उपयोगों की ओर उन स्वरूपाचरणों की उद्भूति तभी बन सकती है जब कि हमारी उस ध्रुव निज पदार्थ में रुचि हो और श्रद्धा हो, इस निज अंतस्तत्त्व की रुचि और श्रद्धा से ज्ञान का विकास और स्वरूपाचरण की प्रगति में दृढ़ता हुआ करती है । अतएव इस सम्यग्दर्शन को संत पुरुषों ने चारित्र और ज्ञान का बीज कहा है । क्योंकि, सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र और सम्यग्ज्ञान होता ही नहीं है । यह सम्यग्दर्शन जैसे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का बीज है इसी प्रकार यम और प्रसमभाव का जीवन है । हेय परिणतियों का त्याग करना और क्रोधादिक कषायों का उपशम होना ये दो महाकल्याण इस सम्यग्दर्शन की वृत्ति से जीवित रहते हैं । अपना आत्मा लाभ पाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना यम और प्रसम निर्जीव के समान हैं । जिसे दृष्टि निर्मल मिली है उसको यम से, प्रसम से और स्वध्याय आदिक सर्व चेष्टावों से कल्याण का मार्ग मिलता है और मार्ग पर गमन भी उसका होता है । जिसे दृष्टि नहीं मिल सकी हो अपने अंतस्तत्त्व की तो उसका लक्ष्य ही कैसे बन सकता है कैवल्य का और फिर कैवल्य लाभ का यत्न भी कैसे चल सकेगा ? यह सम्यग्दर्शन तप और स्वाध्याय का आश्रय है । सम्यग्दर्शन के बिना तप और स्वाध्याय निराश्रय हैं । तपश्चरण के कर्तव्य का हम कहाँ पर योग बैठायें ? जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है वह तपश्चरण का प्रयोजन कहाँ थाम सकता है ? उसकी कल्पना में अनेक आलंबन चलते रहेंगे । तो सम्यग्दर्शन तप और स्वाध्याय का आश्रय है । इसी तरह जितनी भी उपादेय प्रवृत्तियाँ हैं, इंद्रिय का दमन, व्रतपालन उन सबकी सफलता सम्यग्दर्शन से है । सम्यग्दर्शन के बिना समस्त क्रियाकांड भी मोक्षफल के दाता नहीं हो सकते, इस कारण ध्यान के अंगों में मुख्य अंग सम्यग्दर्शन को कहा है ।