वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 443
From जैनकोष
प्राप्नुवंति शिवं शश्वच्चरणज्ञानविश्रुता: ।
अपि जीवा जगत्यस्मिन्न पुनदर्शनं विना ॥443॥ सम्यक्त्व के बिना मोक्षलाभ की असंभवता ― इस जगत् में जो आत्मा चारित्र और ज्ञान के कारण जगत् में प्रसिद्ध है वे भी सम्यक्त्व के बिना मोक्ष को प्राप्त नहीं करते । लोक में जो कोई महापुरुष भी कहे जाते हों ज्ञान से, धर्म से, आचरण से, परोपकार से यहाँ के उत्कृष्ट नेता भी हों, प्रजाजन जिनको बड़े चाव से चाहते भी हों, उनकी महनीयता भी हो तो भी रही आये महनीयता, वह तो कुछ दिन की बात है । आत्मा के कल्याणभूत मोक्षतत्त्व को वे भी सम्यग्दर्शन के बिना पा न सकेंगे । सम्यक्त्व ही इस जीव का उद्धारक है । अपने आप में अपने आपका सुल्झेरा कर लेना बस यही एक अपने उद्धार की बात है । जगत् के बाह्य पदार्थों से क्या हिसाब लगाना, मैं बड़ा हुआ कि नहीं हुआ । बाह्य में दृष्टि पसारकर क्या हिसाब देखना ? अपने ही आपमें अपनी दृष्टि रखकर अपना हिसाब देखना चाहिए । अपने आपके परिचय बिना और अपने आपके अनुभव बिना विशुद्ध आनंद तो नहीं जग सकता । और वास्तविक स्वतंत्रता की भी झलक नहीं ली जा सकती है । एक निर्विकल्प भाव में ही सर्वकल्याण निहित है ।