वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 447
From जैनकोष
मतिश्रुतावधिज्ञानं मन:पर्ययकेवलम् ।तदित्थं सान्वयैर्भेदै: पंचधेति प्रकल्पितम् ॥447॥
ज्ञान के विकास प्रकार ― ज्ञान 5 प्रकार का माना गया है ― मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । कर्मउपाधि के निमित्त से कहीं ज्ञानावरण का क्षयोपशम है, किस ही रूप में उदय है अथवा कहीं क्षय है, इन सब उपाधियों की अवस्था विशेष के निमित्त से ज्ञान में ये 5 भेद पड़ गये हैं । परमार्थत: ज्ञानमात्र में कोई भेद नहीं है । यह भी कहा कि कोई ज्ञान प्रत्यक्ष है, कोई ज्ञान परोक्ष है, ज्ञान के स्वरूप की ओर से भेद नहीं है । जो ज्ञान आगम शास्त्र का आलंबन लेकर जानकारी बनाता है उस ज्ञान में और जो ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, केवल आत्मा के द्वारा ही जानकारी बनाता है, जानकारी के अंश में जानकारी के स्वरूप की दृष्टि से दोनों ज्ञानों में अंतर नहीं है, किंतु जब जानकारी के क्षेत्र से बाहर किसी बात का निर्णय करने चलते हैं तो वहाँ भेद पड़ जाता है । ज्ञान का स्वरूप तो केवल प्रतिभास प्रकाश है, वह सभी ज्ञानों में पड़ा हुआ है । ज्ञानों में मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान का भेद नहीं बसा हुआ है । ज्ञान का स्वरूप तो जानन मात्र है । ज्ञान के साथ जो मोह का उदय चल रहा है उसके कारण ज्ञान में मिथ्याज्ञान का व्यपदेश होने लगता है । ज्ञान का काम तो जानन मात्र है, प्रकाश करने का काम तो प्रकाश मात्र है । हरी रोशनी बना देना, नीली रोशनी बना देना प्रकाश का काम नहीं है । उस प्रकाश के साथ कोई उपाधि लगी है, चाहे काँच में ही रंग लगा हो, चाहे उसके ऊपर हरा पीला कागज लगा हो, कुछ भी किया गया हो, उपाधि के भेद से प्रकाश में भेद हो जायेगा, किंतु प्रकाश के स्वरूप की दृष्टि से ज्ञानों में भेद नहीं होता है, इस ही प्रकार ज्ञान के स्वरूप की दृष्टि से ज्ञानों में भेद नहीं होता है किंतु आवरण मोह उपाधि आदिक के भेद से ज्ञान में सम्यक् मिथ्या आदिक के भेद बता दिये जाते हैं । ज्ञान तो परमार्थत: एक स्वरूप है । जो पुरुष द्वैत की ओर रुचि रखते हैं उनको द्वैत ही द्वैत मिलता रहता है, जो पुरुष अद्वैत की रुचि रखते हैं उनको निज में कोई अद्वैत की कल्याण की चीज प्राप्त होती है । यद्यपि जगत् में सभी पदार्थ हैं और उनका व्यवहार से परिचय होता है । लेकिन नानारूप उपयोग बनाने में, भरमाने में वास्तविक श्रेय नहीं प्राप्त हो सकता । अपने को एक स्वभावी अद्वैतरूप अखंड सामान्य स्वरूप निर्विकल्प अभेद अनुभव करने से ही विशिष्ट श्रेय की प्राप्ति होती है ।