वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 446
From जैनकोष
ध्रौव्यादिकलितैर्भावैनिर्भरं कलितं जगत् ।बिंबितं युगपद्यत्र तज्ज्ञानं योगिलोचनम् ॥446॥
योगियों का लोचन ― यह सारा जगत् उत्पादव्ययध्रौव्य इन तीन भागों से भरा हुआ है । ऐसा उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक यह समस्त जगत् जिस ज्ञान में एक साथ प्रतिबिंबित हो वही ज्ञान योगीश्वरों के नेत्र के समान है । कभी कोई योगी अपनी धारणा के अनुसार कैसे ही ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान मान लेते हैं, किंतु प्रत्यक्ष ज्ञान तो वही है जो त्रितयात्मक समस्त जगत् को एक साथ प्रतिबिंबित कर लेता है । प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है । सभी पदार्थ अपने इस सत्त्वस्वरूप के कारण प्रति समय परिणमित होते रहते हैं । किसी में ऐसी अपूर्णता नहीं है कि उसमें उत्पाद अथवा व्यय किसी दूसरे पदार्थ से लाना पड़े, ऐसा अधूरापन किसी भी पदार्थ में नहीं है । जब कभी किसी परपदार्थ का निमित्त पाकर कोई पदार्थ विभावरूप परिणमता है उस समय भी निमित्त से उत्पादव्यय आधार लेकर या मँगाकर अपना उत्पादव्यय करता हो ऐसा नहीं है, किंतु, पदार्थ का स्वरूप ही ऐसा है कि वह कब किस प्रसंग में किस निमित्त को पाकर किस रूप परिणम जाये, यह सब उपादान में योग्यता पड़ी हुई है । जब यों समस्त पदार्थों का स्वरूप है तब फिर कौन किसका स्वामी है ? किसी पदार्थ का अपने को स्वामी मानना यह भ्रम और अज्ञान की बात है । इस कल्पना में अंत में संकट ही मिलेगा, कुछ नहीं मिल सकता । भले ही कुछ समर्थ है, इस कारण परिजनों में मोह कर लिया जाये और दूसरे पुरुषों को गैर मान लिया जाये, भले ही ऐसी उद्दण्ता मचा ली जाये, किंतु भविष्य इसका अच्छा नहीं है । शुद्ध ज्ञान का उपयोग रखना, अपने को समस्त जग से विविक्त निहारना, ज्ञानस्वरूपमात्र अपने आपका अनुभवन करना यह तो है विवेक की बात और उत्तम भविष्य होने की बात । इसके विरुद्ध जो पर का आर्कषण, पर को आत्मीय मानना ये सब भ्रमजाल हैं । पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ विज्ञान मोहांधकार को नष्ट करने का करण है, इस कारण यथार्थ ज्ञान का प्रताप सूर्य से भी बढ़कर है । इस लोक में कुछ मायाजाल में फँसकर किसी को प्रसन्न करने के लिए, किसी को अपनी कुछ महत्ता बताने के लिए कुछ विकल्प कर लिए जाये और दु:खभरे परिणमन बना लिए जाये इससे हे आत्मन् ! तुम्हारी कौन-सी सिद्धि है ? भ्रांत ज्ञान यथार्थ ज्ञान नहीं है किंतु सर्वपदार्थों के उनके उनमें ही उत्पादव्ययध्रौव्य सव्तंत्रता निरखने वाला ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है । वस्तु की स्वतंत्रता निहारने का प्रेमी होना चाहिए । अनादिकाल से इस जीव ने परपदार्थों में कितनी आत्मीयता की, परपदार्थों से कितना संबंध माना, कितना किया यही-यही तो किया । इतने बड़े विकट रोग को नष्ट करने की जो स्वतंत्रस्वरूप को निहारने की औषधि है, वह कितनी मात्रा में देना चाहिए ? अनादिकाल के बसे हुए संबंध मानने के रोग को मिटाने के लिए स्वतंत्रता की कितनी दृष्टि बनाना है विचार तो करिये । किसी पक्ष में, खंडन में, विरोध में, अपनी नामवरी में समय बिताने से आत्मा में कोई अतिशय उत्पन्न होगा क्या ? अरे खुद दुखिया हैं, अपने आपके दु:ख के निवारण करने की युक्ति तो बना लें । कोई मददगार नहीं है । जैसे परिजन में जिनके लिए पाप किया रहा है वे कोई मददगार नहीं होते, इसी प्रकार नामवरी उत्पन्न करने के क्षेत्र में जिनको अपनी नामवरी का साधकतम बनाया है वे सब इस जीव के साथी न बनेंगे । प्रत्येक पदार्थ अपने ही उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप से परिणमता है, अपनी भलाई कर लो, अपने शुद्ध ज्ञान का प्रयत्न कर लो । सम्यग्ज्ञान वही है जिस ज्ञान में उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक समस्त पदार्थ एक साथ प्रतिबिंबित होते हैं ।