वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 451
From जैनकोष
ऋजुर्विपुल इत्येवं स्यान्मन:पर्ययो द्विधा ।
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषोऽवगम्यताम् ॥451॥मन:पर्ययज्ञान का विकास ― चौथे ज्ञान का नाम है मन:पर्ययज्ञान । दूसरे मन की बात को विकल्प को जान जाना सो मन:पर्ययज्ञान है । ये दो प्रकार के होते हैं एक ऋजुमति, दूसरा विपुलमति । दूसरा कोई पुरुष कोई सरल बात सरलता से मन में सोच रहा है उसे जाने तो वह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है । कोई पुरुष बड़े मायाचार से, बड़े गुप्त ढंग से कुछ भी सोच रहा है अथवा अच्छा सोच पाया, या पहिले सोचा था या आगे सोचेगा, उन सब विकल्पों को जो जान लेता है वह विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है । विपुलमति मन:पर्ययज्ञान में विशुद्धि विेशेष है और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान नियम से उस ही भव से मोक्ष प्राप्त करता है । केवलज्ञान होने पर ही मन:पर्ययज्ञान छूटता है इससे पहिले नहीं ।