वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 452
From जैनकोष
अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् ।
अनंतमेकमत्यक्षं तद्विशेषोऽवगम्यताम् ॥452॥
केवलज्ञान की विश्वलोचनरूपता ― जो समस्त द्रव्य और पर्यायों को जानने वाला है, समस्त जगत् का लोचन है, अनंत है, एक है अतींद्रीय है उस ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं । केवल का अर्थ है मात्र वही वही, जिसके साथ दूसरे पदार्थ का अथवा परभाव का संबंध न हो उसे कहते हैं केवल । जो समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जानता है वह केवलज्ञान है । ज्ञान यदि केवल रह जाये, उसके साथ कोई उपाधि और आवरण न रहे तो उसकी ऐसी विशेषता है कि वह ज्ञान समस्त सत् को जानने वाला हो जाता है । इसी कारण केवलज्ञान का अर्थ सबको जानने वाला प्रसिद्ध हो गया । शब्द का अर्थ तो यह है कि केवल ज्ञान-ज्ञान रह गया, अन्य कोई उपाधि या कलंक नहीं रहा, किंतु निष्कलंक निरुपाधि ज्ञान में चूँकि ज्ञानस्वभाव तो है ही, तो वह जानेगा और कितना जानेगा जो सत् हो उस सबको जानेगा । अतएव केवल ज्ञान सर्व ज्ञान को कहते हैं । केवलज्ञान अविनाशी है, इसका कभी विनाश नहीं होता । केवलज्ञान मिटकर कहीं और प्रकार के ज्ञान हो जायें ऐसा अब कभी न होगा । यह अतींद्रीय है, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की तरह इंद्रिय से उत्पन्न नहीं होता । यह केवल आत्मा, को ही जानता है । वह केवलज्ञान है, सकल प्रत्यक्ष है । आत्मा वस्तु के यर्थाथस्वरूप को जाने और यर्थाथ जानकर भेदविज्ञान को दृढ़ करे और भेदविज्ञान के फल में अपने आपके अभेदस्वरूप का ज्ञान करे तो इस परमपुरुषार्थ के फल में उत्कृष्ट से उत्कृष्ट बात क्या होती है वह है केवलज्ञान । एक अद्वैत सहज निज चित्स्वभाव के ज्ञान में ऐसी सामर्थ्य है कि यह उत्तरोत्तर विकसित हो होकर अंतिम अवस्था केवलज्ञान की प्राप्त करता है ।