वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 456
From जैनकोष
दु:खज्वलनतप्तानां संसारोग्रमरुस्थले ।
विज्ञानमेव जंतूनां सुधांबु प्रीणनक्षम: ॥456॥विज्ञानसुधा से संसारसंताप का शमन ― इस संसाररूपी उग्र मरुस्थल में दु:ख की ज्वाला से तपे हुए जीवों को एक सत्य तत्त्वज्ञान ही अमृतरूपी जल से तृप्त करने में समर्थ है जैसे मरुस्थल है अर्थात् जहाँ मरुभूमि है, जहाँ पानी का ठिकाना नहीं है और फिर वहाँ लग जाये तो उस आग से बचना वहाँ के जीवों के लिए कठिन पड़ता है । कहाँ जल रखा है, ऐसे ही इस संसाररूपी मरुस्थल में असार स्थानों में तप रहे ये संसारी प्राणी हैं, इनका अब क्या उपाय है ? बहुत कठिन बात है कि वे शांत हो जायें, तृप्त हो जायें । केवल एक ही उपाय है । तत्त्वज्ञानरूपी अमृतजल से उसे तृप्त कराया जाये । यथार्थज्ञान की वृत्ति हुई कि सारे संकट एक साथ दूर हो जाते हैं । बहुत-बहुत विपदा है, पर एक यह प्रकाश आ जाये कि मेरा बाहर में कहीं कुछ नहीं है, लो सबके सब संकट एक साथ शांत होते हैं या नहीं । तो मैं क्या हूँ ? मैं एक चेतन ज्ञानानंदस्वरूप अमूर्त जिसका नाम नहीं जिसे विशेषण से आत्मा कहते हैं, देह से भी जुदा जिसको कोई समझता नहीं, इस संबंध में भी जिसे किसी का परिचय नहीं ऐसा एक चैतन्यस्वरूप मैं हूँ । इस मुक्त अंतस्तत्त्व का कहीं कोई नहीं है । तो यों तत्त्वज्ञान की दृष्टि जब जगती है तो सारे दु:ख एक साथ शांत हो जाते हैं या नहीं ? सो खुद अनुभव करके देख सकते हैं । तो सम्यग्ज्ञानरूप अमृतजल से ही दु:खी पुरुषों को तृप्ति मिल सकती है अर्थात् संसार के दु:ख मिटाने के लिए एक सम्यग्ज्ञान ही समर्थ है । सम्यग्ज्ञान के प्रसंग में जो कुछ अंतर्वत्ति होती है स्वयं के हित की दृष्टि से हित की पद्धति से होती है । कभी कोई उस सम्यग्ज्ञान की वृत्ति से इस जीव का अहित नहीं होता है, हित उत्पन्न होता है ।