वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 473
From जैनकोष
हिंसायामनृते स्तेये मैथुने च परिग्रहे ।विरतिर्व्रतमित्युक्तं सर्वसत्त्वानुकंपकै: ॥473॥
अप्रसन्नता का मूलकारण मिथ्या आचरण ― हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों में त्यागभाव होना सो अभाव है, ऐसा सर्वजीवों पर अनुकंपा रखने वाले ऋषिसंतों ने कहा है । देखिये जीवन तो बीत ही रहा है, जिस किसी भी आचरण में रहकर जीवन बितायें, लेकिन मिथ्या आचरण में भले ही काल्पनिक मौज माना जाय, पर न उस काल प्रसन्नता है और न उससे कभी प्रसन्नता होगी । जब मृत्यु निकट आयेंगी तब यह पछतावा होता है कि यदि मिथ्या आचरण न करता तो क्या नुकसान था, लाभ ही लाभ विशेष था, तो मिथ्या आचरण से जीवन में भी प्रसन्नता नहीं रहती अतएव ब्रतरूप आचरण होना, संयमी जीवन बिताना, शुद्ध विचारों में रहना, किसी से बैर विरोध न करना, क्षमा भाव रखना, ऐसी प्रकृति बनी रहें और फिर उसे बदल देने का भाव न करे । हाँ इतनी हिम्मत जरूर होना चाहिए कि कोर्इ चेष्टा हमारे धर्म अथवा इज्जत या धन पर कड़ी चोट पहुँचाये तो हम अपनी नीति से उसका पूरा मुकाबला कर सकें और निवारण कर सकें, इतना साहस जिसके है उसके ही ऐसी क्षमा भी हो सकती है, नहीं तो एक असमर्थ सा अपने को समझकर दूसरों की बातें सहता जाय तो यह क्षमा में शामिल नहीं है । यदि जीवन निर्दोष व्यतीत हो तो उसकी प्रसन्नता निर्मलता लाभ सब अंत में विदित होता है । मनुष्य जन्मा, बड़ा हुआ, बूढ़ा हुआ, मर गया, फिर जन्मा, तत्त्व की बात, सार की बात क्या इस मनुष्य ने पायी ? मान लो थोड़ी देर के लिए इन मायामयी जीवों ने इस मायामयी संसार में कुछ मायमयी प्रशंसा कर दी तो उससे आत्मा को क्या लाभ मिला ? आत्मा का तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही रक्षक है, दूसरा कोई रक्षक नहीं है । तो व्रत के धारण की इच्छा और प्रकृति रहना चाहिए और मन का संयम बना रहे जिससे अपना ज्ञान बल बढ़े, ऐसी वृत्ति में ही वास्तविक प्रसन्नता पायी जा सकती है ।