वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 472
From जैनकोष
पंचव्रतं समित्यंच गुप्तित्रयपवित्रितम् ।
श्रीवीरवदनोद्गीर्णं चरणं चंद्रनिर्मलम् ॥472॥
सम्यक्चारित्र के 13 अंग ― 5 महाव्रत, 5 समिति और 3 गुप्ति ऐसा 13 प्रकार का चारित्र श्री वर्द्धमान भगवान के मुख से प्रकट हुआ है । वह चंद्र के समान निर्मल है । जैसे सम्यग्दर्शन के 8 अंग हैं और सम्यग्ज्ञान के भी 8 अंग हैं इसी तरह के सम्यक्चारित्र के भी 13 अंग हैं प्रकार क्या अंग । प्रकार और अंग में फर्क रहता है । प्रकार तो भेद हुए और अपनी-अपनी जगह में वे स्वतंत्र हैं और अंग का अर्थ है यह कि अंग मिलकर देह बन गया । जैसे मनुष्य के 8 अंग हैं ― दो हाथ, 2 पैर, एक सिर छाती, पीठ और नितंभ तो इन 8 अंगों से मिलकर बने वही तो नरदेह है । ऐसे ही 8 अंगों का समूह सम्यग्दर्शन, 8 अंगों का समूह व्यवहार सम्यग्ज्ञान और 13 अंगों का समूह सम्यक्चारित्र ।
ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि में भेद ― जिस अंतरात्मा के विशुद्ध दृष्टि जग गयी है प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र निज निज सत्ता को लिए प्रतिभात होता है, ऐसे ज्ञान के कारण परपदार्थों से उपेक्षाभाव से प्राप्त हुए ज्ञान की जो प्रवृत्ति होती है वह निर्मल और आदर्श होती है । अब इस जीव को, इस अंतरात्मा को किसी भी प्राणी के सताने का भाव नहीं रहा और जब-जब किसी प्राणी को देखते हैं तो अपने ही सहज स्वभाव की तरह उनमें भी सहज स्वभावरूप से देखते हैं, एक दृष्टि के भेद से प्रवृत्ति में भी बहुत भेद हो जाते हैं । एक पुरुष को सभी जीव पापी, दोषी, अपराधी, बेईमान देखा करें तो वे पुरुष और एक वह पुरुष जिसको सभी लोग साधारणतया सत्पुरुष सरल दिखा करें और कभी पाप प्रवृत्ति भी उनकी दीखे तो इस दृष्टि से देखा करें कि आत्मा तो हम सबकी ही तरह चैतन्यस्वरूप है । कर्मों का कैसा तीव्र उदय है कि ऐसी वृत्ति हो गयी है, इस तरह निरखा करें तो दो पुरुषों की मूलदृष्टि में अंतर ही तो कुछ होगा । वह अंतर है बहिर्द्दष्टि और अंतर्द्दष्टि का । किसी पुरुष को देखकर उसके दोष ही हमें नजर आयें ऐसा होने का कारण यह है कि हमारा दोषों में ही उपयोग बना रहता है । और किसी को देखकर उसके गुण ही नजर आयें, दोष हों विशेष तो पीछे नजर आयें तो वहाँ अंतर्द्दष्टि का प्रभाव है ।
निर्मल आशय वाले जीव की प्रवृत्ति ― जिसका अंत:स्वरूप विशुद्ध हो गया है, आशय निर्मल है ऐसा पुरुष सब जीवों के प्रति उस शुद्ध चैतन्यस्वभावरूप उनकी प्रतीति रखते हैं । और किसी भी जीव को सताने का उनके भाव नहीं रहा अतएव 6 काय के जीवों की हिंसा के त्यागी हैं और निरंतर उनका प्रयत्न यह रहता है कि मैं अपने शुद्ध ज्ञान दर्शन का विनाश भी करूँ, सहज ज्ञाताद्रष्टा रहूँ इस प्रकार से तो अहिंसामहाव्रत है । वचन बोलने का जिसका कम से कम यत्न है, कुछ बोलना आवश्यक ही हो तो जिसमें कुछ दूसरों को हित हो और अपना कहीं फँसाव न हो, अपना भी बचाव हो इस प्रकार बहुत परिमित प्रिय शब्दों में जिनके वचन निकला करते हैं ऐसे शुद्ध महाव्रत की जिनकी धारणा है वे मुनि लोक में आदर्शरूप हैं । चोरी का तो जिनके पूर्णपरित्याग है और इस रूप में परित्याग किया है कि कुछ साधन भी नहीं रहा कि चोरी कर सकें । कपड़े, थैली, ट्रैक रखते हों तो कोई चीज छुपाने का साधन भी रहे, निर्ग्रंथ केवल ज्ञानमात्र है जिनका परिग्रह है, चोरी का कभी साधन संभावना भी नहीं है, ऐसी जिनकी चर्या है और ब्रह्मचर्य महाव्रत तो उनके जीवन का एक आदर्शरूप है और उसका प्रमाण है उनका नग्नस्वरूप । नग्न रहना कितनी ऊँची तपस्या है, इस पर लोगों की साधारणतया दृष्टि नहीं जाती । नग्न होकर भी विकार न आये और बालकवत् निर्भय, नि:शंक, निर्दोष रहें यह उनका आंतरिक परम तपश्चरण है । परिग्रह त्याग तो उनके है ही । यों 5 महाव्रतों के अधिकारी हैं, 5 समितियों के अधिकारी हैं ।
ईया समिति ― ईयासमिति में 4 बातों की दृष्टि रहती है ― दिन में चलना, चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना अच्छे काम के लिए चलना और अच्छा परिणाम रखकर चलना, ये चार बातें एक साथ हों उसे ईयासमिति कहते हैं । केवल बचकर चलने का ही नाम ईयासमिति नहीं है । किसी को पीटने के लिए चले और चार हाथ जमीन देखकर चले तो वह ईयासमिति नहीं है, अथवा किसी तीर्थ वंदना के लिए भी जाय और गुस्सा होकर रूठकर ऐसे भावों से जाय वह भी र्इयासमिति नहीं है । तो जहाँ ये चार बातें एक साथ हों, दिन में जायें, चार हाथ आगे जमीन देखकर चलें, अच्छे काम के लिए चलें और अच्छे भावों से चलें ऐसी जिनकी र्इयासमिति है उनका वह निर्दोष चारित्रचंद्र के समान रहता है ।
भाषासमिति ― भाषासमिति में दूसरों से हित, मित, प्रिय, वचन बोलने की बात है । बहुत विवाद करते रहने का स्वभाव रखना भी कितनी ही विडंबनाओं का कारण बनता है । प्रथम तो स्वयं हृदय में रीता हो जाता है और कभी कोई शब्द अनावश्यक निकल जाय तो उसका फिर खेद होता है । यों अनेक दोष आते हैं अतएव परिमित वचन बोलना मुनीश्वरों का कर्तव्य है । जो उन्नति चाहता है उसे हित, मित, प्रिय वचन बोलना चाहिए । कभी गुस्सा आता है और उस गुस्सा में दूसरे के अनर्थ की बात चित्त में आती है वह न आ सके । प्रत्येक परिस्थितियों में दूसरों का हित ही चाहे यह एक बहुत बड़ा तपश्चरण है ।
अन्य शेष तीन समितियाँ व गुप्ति के पुरुषार्थ में निर्ममता ― एषणासमिति जिनकी है, निर्दोष आहार लेने की विधि जिनकी निर्मल है, कोई चीज धरें उठायें तो देख भालकर धरें उठायें ऐसी जो दया की साक्षात् मूर्ति हैं, अपने पसंद मलमूत्र क्षेपण करें तो निर्दोष जंतु रहित जमीन पर करें, ऐसी जिनकी चर्या है उनका चारित्र चंद्रवत् निर्मल है, जिनका मुख्य पुरुषार्थ तीन गुप्तियों के लिए रहता है । जब गुप्ति में टिक नहीं सकते तब समिति का धारणा करते हैं । मन को वश करना, वचनों को वश करना, शरीर को निश्चल रखना इन तीन गुप्तियों में जिनका पुरुषार्थ रहता है उनका आचरण चंद्रवत् निर्मल है और वे ही पुरुष ध्यान के पात्र हैं ।