वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 479
From जैनकोष
यज्जंतुबधसंजातकर्मपाकाच्छरीरिभि: ।श्वभ्रादौ सह्यते दु:खं तद्वक्तुं केन पार्यते ॥479॥
पापों से नरकों के दु:ख का पात्र ― जीवों का बंध करने से उत्पन्न हुए कर्म के उदय से ये प्राणी नारकादिक गतियों में जो दु:ख सहते हैं उन दु:खों का वर्णन करने के लिए कोई समर्थ नहीं है । वे दु:ख वचनों के अगोचर हैं । नरकों में बताते हैं कि ऐेसी भूमि है कि हजारों बिच्छुवों के काटने से जो क्लेश उत्पन्न होता है उससे कई गुना अधिक कष्ट वहाँ की पृथ्वी को छूने से होता है । यों सीधी तरह से बात सुनने में कुछ शंका हो सकती है कि ऐसा भी है क्या ? इसके उत्तर में थोड़ी देर को ऐसी कल्पना कीजिए और कल्पना भी क्या, होता भी है । जैसे मकान में बिजली के तार भींत के अंदर लगाये रहते हैं, कहीं गल घुनकर किसी तरह भींत में करन्ट आ जाय, उस भींत को छूने से कैसा हाथ झुनझुनाता है । तो नरक में ऐसी ही पृथ्वी की विशेषता है कि जहाँ इस प्रकार की करन्ट प्रकृत्या बनी रहती है । वह बिजली का करन्ट और है क्या ॽ तार भी जमीन है, धातु वह भी है । कोई तार के रूप में पृथ्वी बन गयी है और कोई मिट्टी ढेला के रूप में । पृथ्वी में ही तो बिजलीरूप परिणमन है । तो वहाँ की पृथ्वी इस तरह की है, ठंड गर्मी की वेदना इस ही लोक में देख लो, कहीं अधिक है कहीं कम है । यहाँ भी ठंड की डिग्री जो आजकल की दुनिया में चलती है वह उससे भी कहीं अधिक बढ़ सकती है । तो अत्यंत अधिक ठंड उन नरकों में होती है । अत्यंत अधिक ठंड क्या, वहाँ की असह्य वेदना होती है जो कि वचनों द्वारा नहीं कही जा सकती है । ऐसे ही अनेक स्थल ऐसे हैं जहाँ यह जीव अपने जीवघात के कारण कमाये हुए पाप के उदय से भोगना पड़ता है, वचनों से भी अगोचर दु:खों को यह जीव पाप कर्मों के कारण भोगता है ।
धर्म से दु:खों का छुटकारा ― धर्म करना हो, शांति पाना हो तो सीधा सा एक उपाय है । अपने आपमें मींचकर यह मान लें कि मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, मेरा अन्य से क्या ताल्लुक ? मैं केवल ज्ञानज्योतिस्वरूप हूँ, जो यथार्थ बात है उस रूप प्रतीति करलो धर्मपालन हो गया । उस ही में दृढ़ता रह जाय तो बस चारित्र की प्रगति हो गयी । ऐसा करने के लिए जो एक संभव उपाय होना चाहिए, किया जाय वह है व्यवहारचारित्र । तो धर्म तो एक झलक में उत्पन्न होता है । जिसने अनुभव किया है, जो धर्म के स्वरूप का परिचय पा चुका है उसके लिए एक झलक में धर्म से मेल बन जाता है, और जिसने आत्मा के सहज स्वभाव का परिचय नहीं किया है वह धर्म के नाम पर बहुत बड़ा श्रम भी कर डालता है लेकिन वहाँ धर्म का प्रकाश नहीं मिल पाता । उस धर्म से विरुद्ध चलकर आत्मस्वभाव से च्युत होकर इस जीव ने जीवघात आदिक अनेक पापों से दुष्कर्म किया और अब उसके फल में अनेक खोटी गतियों में जन्म लेता है और दु:ख सहता है ।
अहिंसक दृष्टि से ही कल्याण संभव ― चारित्र अहिंसा प्रधान है और अहिंसा ध्यान का मुख्य अंग है । ध्यान की सिद्धि के लिए अहिंसा का पालन होना ही चाहिए । उसी प्रकरण में आचार्यदेव यह संबोध रहे हैं कि हे आत्मन ! तू सर्व प्राणीयों को बंधु की दृष्टि से निरख, किसी को विरोधी मान रहा है अपने विरोधी भावों से कदाचित् ऐसा भी प्रयत्न करें कि जिससे कुछ अनिष्ट साधन सामने आये और गृहस्थ उसे न सह सके तो उसका मुकाबला भी करे, इतने पर भी सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को दूसरे जीव के अकल्याण का भाव नहीं रहता, यह तो भीतर की दृष्टि की बात है । उसके मुकाबले में वह मारा भी जाय शत्रु इतने पर भी ज्ञानी पुरुष को भीतर में किसी को मारने का परिणाम नहीं है कि मैं इसे बरबाद कर दूँ । हुआ तो परिणाम मरने का, पर अंत: आशय में मारने का परिणाम नहीं है, शत्रु की दृष्टि से अथवा अशत्रु की दृष्टि से ।