वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 480
From जैनकोष
हिंसैव नरकागारप्रतोली प्रांशुविग्रहा ।
कुठारीव द्विधा कर्तुं भेत्तुं शूलोऽतिनिर्दया ॥480॥
यथार्थ दृष्टि में हित ― यह हिंसा नरकरूपी घर में प्रवेश करने के लिए द्वार के दरवाजे की तरह है । जैसे घर में प्रवेश होने का रास्ता दरवाजे से होता है ऐसे ही नरकरूपी घर में प्रवेश करने के लिए यह हिंसा दरवाजे का काम करती है । किसी जीव के बरबाद करने का जो परिणाम होता है उस प्रयत्न के काल में इस जीव को अपनी सुध कहाँ रहती है और फिर व्यर्थ का विकल्प । किसी जीव से हमारा कोई नाता संबंध विरोध शत्रुता कुछ भी तो नहीं रजिस्टर्ड है । किसी से कुछ मित्रता या शत्रुता संबंध हो कैसे सकता है? जीव तो चैतन्य स्वरूप है। वह तो सहज ज्ञायकरूप है, ज्ञाताद्रष्टा उसका परिणमन है, उसमें कहाँ से संबंध बन पाता है कि कोई किसी का शत्रु अथवा मित्र नहीं है । सर्व पदार्थ जब अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल में रहा करते हैं तो यह कहाँ गुंजाइश है कि कोई पदार्थ किसी दूसरे का सुधार अथवा बिगाड़ कर दे ? निमित्त मिले और उसमें कुछ सुधर बिगड़ नहीं भी गया पर जो जीव में औपाधिक घटना से सुधार मानते हो उसकी ही तो कल्पना में सुधार है और जो उस औपाधिक घटना में बिगाड़ मानते हो तो उसकी दृष्टि में बिगाड़ है । परतत्त्व को स्वीकारे बिना केवल ज्ञानमात्र अपने को कोई निरखे तो वहाँ पर से क्या सुधार और क्या बिगाड़ ? जितना जो कुछ सुधार है वह अपने आपमें इस परिणमन से होता है । प्रत्येक वस्तु अखंड है, अपने स्वरूपमात्र है ।
उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक वस्तुस्वभाव ― प्रत्येक वस्तु में यह स्वभाव पड़ा हुआ है कि बने, बिगड़े और बना रहे । यदि कुछ है तो उसमें ये तीन बातें नियम से होंगी, ऐसा जगत में कोई पदार्थ नहीं जो बनने, बिगड़ने और बना रहने इन तीनों में से एक जिसमें कम हो ऐसा कोई पदार्थ नहीं है । है कुछ तो उसकी सकल सूरत होगी । कोई दशा अवस्था तो रहेगी, कुछ दशा नहीं कुछ अवस्था नहीं तो वह सत् नहीं । यद्यपि सत् भाव पदार्थ में सामान्यदृष्टि से जो शाश्वत पदार्थ निरखा जाता है उस तत्त्व की अवस्था का बिगाड़ नहीं है, लेकिन वह तत्त्व पृथकभूत सत् तो नहीं है । एक ही सत् में हम उसके सामान्यतत्त्व का अवलोकन करते है, पर इतना ही मात्र तो वह द्रव्य नहीं है । द्रव्य का वह भी एक अंश है तो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य के बिना कोई पदार्थ रह नहीं सकता । हम भी अपने उत्पाद व्यय ध्रौव्य में हैं, सभी अपने अपने परिणमन से परिणमते हैं । तो मैं न परिणमूँ दु:खरूप और कोई मुझे दु:खी बना दे ऐसा तो होता ही नहीं है । मैं न परिणमूँ सुखरूप और कोई मुझे सुखिया बना दे ऐसा भी कभी नहीं होता है ।
वस्तुस्वरूप के अपरिचय से अनर्थ कल्पनायें ― वस्तुस्वरूप से अपरिचित पुरुष यह मेरा है, यह दूसरे का है, यह मेरा है यह गैर है इस प्रकार के विकल्पों में खुशी माना करते हैं, किंतु है क्या ? जगत में बाह्य में अपने लिए सारभूत कुछ तत्त्व नहीं । धन जोड़ लिया, पर उस जुड़े हुए धन से आत्मा को क्या लाभ हो जायेगा । कोई कहे कि शांतिपूर्वक जिंदगी का गुजारा तो चलेगा तो जिंदगी का गुजारा चलने के लिए कोई वैभव की सीमा नियत है क्या कि इतना वैभव हो तो जिंदगी का गुजारा भली प्रकार चलता है । कोई कितने धन में ही संतुष्ट है, कोई कितने ही द्रव्य में अपने गुजारे की कल्पना करता है । कोई कहे कि वैभव होने से लोक में इज्जत तो होती है, लोग तो मानते हैं कि ऐसी जिनकी दृष्टि संकुचित है इस दृश्यमान लोक को ही अपनी सारी दुनिया मान लेते हैं ऐसे अज्ञानी पुरुष तो यह विकल्प चलाते हैं और जिनकी समझ में आया है कि दुनिया तो असंख्यात योजनों की है और यहाँ तो एक उत्पन्न हो गए हैं, इसके बाद फिर कोई संबंध नहीं है, कहाँ से कहाँ चले गए । इस जीवतत्त्व के लिए यहाँ की नामवरी में लाभ कुछ नहीं है, बिगाड़ ही सारा है । किसी दार्शनिक ने तो इसी कारण सर्वपापों की जड़ नाम को बताया है ।
पर्याय बुद्धि के त्याग में अहिंसा ― कर्मों के आस्त्रव में कारण नाम प्रत्यय आदिक बताये गए हैं, तो जो नाम आपका रखा गया है वह यदि शुरू से न रखा जाता, कुछ दूसरा नाम रखा गया होता तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था ? फिर आपका यह नाम है यह कहाँ खुदा हुआ है ? और कितनी कल्पनाभेद की बात है कि वे ही तो 16, 36 अक्षर और उनका ही उलट फेर करते हैं और खरबों आदमियों के नाम एक दूसरे से न मिलें इतने नाम धर लिए जाते हैं । तो नाम का इस जीव से संबंध नहीं है, नामवरी भी चाहकर पाकर इस आत्मा को मिलता क्या है ? इन सब बातों को विचार कर कुछ अपने स्वरूप में मग्न होने का यत्न करना चाहिए । बाह्य में तो ये सब प्रकट असार बातें हैं । अपना शुद्ध ज्ञानस्वरूप स्वानुभव में बना रहे इससे उत्कृष्ट और कुछ भी पुरुषार्थ नहीं हो सकता । जो ऐसा नहीं कर सकते वे अपनी हिंसा कर रहे हैं और जो परजीवों की हिंसा करते हैं वे और विकट हिंसा में पहुँच गए हैं । हिंसा नरक में प्रवेश करने का द्वार है और अपने आपके विनाश किए जाने के लिए यह हिंसा कुठार और शस्त्र जैसा काम करती है । हिंसा से दूर रहें और अहिंसक ज्ञायक स्वभाव की दृष्टि करें यही हितकारी धर्मकार्य है ।