वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 482
From जैनकोष
तपोयमसमाधीनां ध्यानाध्ययनकर्मणां ।
तनोत्यविरतं पीडां हृदि हिंसा क्षणस्थिता ॥482॥
अहिंसक वृत्ति बिना सब निरर्थक ― तप, यम, समाधि, ध्यान, अध्ययन आदिक कार्यों में यह हिंसावृत्ति निरंतर बाधा देती रहती है । क्रोधादिक परिणाम किसी भी कारण से एक बार भी उत्पन्न हो जायें तो उसका संस्कार स्मरण बना रहता है तो चित्त में बहुत काल तक व्यग्रता रहती है । अनेक प्रसंग ऐसे हो जाते हैं व्यर्थ के कि जिनमें कोई तत्त्व नहीं, लाभ नहीं, बात-बात में क्रोध आ जाय तो उस समय भी क्लेश पाया, सो ठीक है, पर बाद में भी स्मरण बना रहता है । उसके प्रति संस्कार बना रहे तो वह बाद में भी पीड़ा देता रहता है । इस तरह का संस्कार जिसके 6 माह से अधिक नहीं रह सकता वह तो है अविरत सम्यग्दृष्टि जीव, और जिसके 15 दिन से अधिक न रह सके वह है उत्तम श्रावक और जिसके अंतर्मुहूर्त से ज्यादा न रह सके वह है मुनि, और जो वर्षों अथवा भव-भव तक उस क्रोध कषाय का संस्कार लिए रहता है वह है मिथ्यादृष्टि ।
कषाय प्रवृत्ति में जीव का हित नहीं ― हिंसा महा अनर्थ की चीज है । सभी कषाय जीव का अनर्थ ही करते हैं । किसी के प्रति क्रोध कर डाला तो उससे खुद को मिला क्या ? खुद में निहारें कि हममें कौन सी बात नई मिल गयी, समृद्धि हो गयी, तो वहाँ कुछ नजर नहीं आता । हो गया क्रोध । यह ही तो अविवेक का काम है । घमंड का परिणाम बन गया, मान कषाय कर ली तो जरा देखें तो सही कि इसमें आत्मा को मिल क्या गया ? कौन सी समृद्धि बन गयी ? थोड़ा यह कह लो कि लोगों के चित्त में तो कुछ कदर हो गयी । तो लोगों के चित्त की भी कौन सही जाने, कदर हुई या नहीं । दूसरी बात यह है कि कुछ लोगों ने कह दिया थोड़ा अच्छा तो उतने शब्दों से यहाँ कौन सा पूरा पड़ गया ? कौन सी बात संभल गयी ॽ माया कषाय में मन में कुछ है, वचन में कुछ है, करते कुछ हैं, ऐसा जिसका विचार है, व्यवहार है तो इस व्यवहार के करने वाले को भी देखो कि इतनी उल्झनें बनाने के कारण पाया क्या उसने ॽ व्यवहारदृष्टि से भी कुछ नहीं पाया और परमार्थ से तो कुछ पाया ही नहीं । लोभ कषाय में बहुत बढ़ जाय, बहुत वैभव का संचय करले तो उसमें भी क्या पाया ॽ मान लिया कि मेरा है बस जिंदगी व्यतीत हो रही है । दुनिया के लोग मायारूप हैं, उनको हम दया बतायें, उनको कुछ बड़प्पन बताने से हमारा कुछ पूरा पड़ता है क्या ॽ किसके लिए इतना संचय होना ॽ तत्त्व की बात बतावो । अब भी ऐसे श्रावक मौजूद हैं जो धन कमाने की ओर से बिल्कुल उदासीन हैं । वे चाहते ही नहीं कि हमारे कुछ धन बढ़े या रहे और जो व्यापार कर रहे थे दसों प्रकार के तो यह सोचकर कि उपभोग में तो केवल दो रोटी और दो कपड़े ही आते । उनका आशय सुना रहें हैं जिन्होंने ऐसा किया है और बड़े-बड़े आरंभ व्यापार छोड़ दिया । सामान्य तौर से गुजारा पसंद किया । यह सब श्रद्धा की बात है । जब दृष्टि में यह बात आती है, कि जिनके लिए यह धन संचय करते उन्हें भी छोड़कर जाना है, कौन मेरा मालिक है, कौन प्रभु है, कौन हमारे काम आ सकता है ॽ
बाह्य उल्झनों में असारता ― जब यह दृष्टि बन जाती है कि किसको क्या बताना, इन बाह्य उल्झनों मे तो सार कुछ नहीं मिलता किंतु स्वाध्याय में ध्यान में, सत्संग में अपना अधिक समय व्यतीत हो, उपयोग निर्मल रहे तो इसमें प्रसन्नता और कर्मक्षय, भविष्य में धर्म का सुयोग ये सब प्राप्त होते हैं । दुनिया की प्रवृत्ति देखकर अपने को भी उसी कषाय में बढ़ायें ले जाना यह तो ऐसा काम हुआ कि दुनिया की वोट अधिक हुई, जिसका ज्यादा वोट है उसके अनुसार कार्य करने लगे । अच्छा यह बतावो कि दुनिया में अज्ञानी जनों की संख्या अधिक है या ज्ञानीजनों की ? अज्ञानियों की संख्या अधिक है । मोहियों की संख्या अधिक है । यदि दुनिया की वोट लेते हो तो उन मोहियों की अज्ञानियों की ज्यादा वोट मिलेगी उससे तो अपना पथ नहीं बनाना चाहिए । वह उद्धार का पथ नहीं है । वह तो इनका पथ है कि वे वोट देने वाले कहते हैं कि जहाँ हम चल रहे हैं वहीं तुम चलो, जहाँ हम गिर रहे हैं वहीं तुम गिरो ।
हितकारी पंथ अपनाने की प्रेरणा ― चारों कषायें मंद हों और ज्ञान की धुन हो फिर अपना जो जीवन व्यतीत हो ज्ञानध्यान संयमसहित वह ही कार्यकारी जीवन है । और, ऐसा कोई यदि करे, हिम्मत बनाये तो उदय में जो है सो तो होगा ही । जिसको राज्य का उदय हुआ है और राज्य से हटा भी दिया जाय, कहीं भगा भी दिया जाय तो और जगह जाकर भी कोई सुयोग ऐसा मिलता कि वह राजा बन जाता है । तो उदयानुसार जो होता है हो पर अपना उपयोग किस ओर होना चाहिए, किसमें हित है, किसमें सार मिलेगा, किसमें प्रसन्नता जगेगी वह पंथ अपनाना चाहिए । जिस क्षण जहाँ भी हों दुकान में हों, घर में हों, सत्संग में हों, जिस किसी भी क्षण समस्त बाह्य पदार्थ असार जँचने के कारण उनका उपयोग हटा हुआ बन जाय ।
कर्मक्षय का उपाय ज्ञानरूप वृत्ति ― अपने अमूर्त निर्लेप शुद्ध ज्ञानज्योति के स्वरूप का अनुभव करने लगें तो उस काल में अपने को जैसी निर्जरा निर्विकल्प निर्दोष ज्ञानप्रकाशमात्र अनुभव करते हैं उस अनुभव में अद्भुत तो आनंद है और भव-भव के संचित कर्म ऐसा हट जाते हैं जैसे बहुत कूड़े के ढेर को अग्नि की एक कड़िका भस्म कर देती है । है क्या यहाँ ? ज्ञान से चिगे, अज्ञानरूप परिणमन किया उसके कारण ही कर्म बंध गए । तो जब अज्ञानरूप परिणमन न किया जाय और ज्ञानरूप वृत्ति बने तो उन कर्मों के क्षय करने में कठिनता, परिश्रम क्या है ॽ वह तो 2×2=4 जैसी गणित है । अज्ञान किया तो कर्म बंध गया, ज्ञान भाव रखा तो कर्म अपने आप झड़ गए उसमें कर्मों के झड़ने का और क्या श्रम करना ॽ तो यह जो विकाररूप हिंसा है अथवा व्यवहारिक हिंसा है इस विकाररूप हिंसा का परिणाम तो ध्यान आदिक को नहीं होने देता ।
विकारी परिणमन में पछतावा से आत्मबल में वृद्धि ― अविकारी भाव की उपासना करना, अविकारी भाव के लिए लालसा रखना, अविकारी भाव से च्युत होने पर पछतावा होना ये सब कर्म निर्जरा के ही कारण हैं । पछतावा में बहुत बड़ा बल होता है । कोई पाप कार्य कर लेने पर यदि हृदय से पछतावा रखते हैं तो उसमें आत्मबल भी बढ़ता है और कर्मक्षय भी होता है और इसको तो कोई लोग कथानक में यह मानते हैं कि गुस्से या प्रभु से या प्रभु से भी पहिले पाप करने वाला शिष्य निर्वाण को प्राप्त हुआ । किस बल से कि पाप का इतना तीव्र पछतावा किया कि अपने को इतना निर्भार अनुभव किया कि उसका निर्वाण हुआ । यदि वास्तविक पछतावा है तो उसमें बड़ा बल होता है ।