वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 483
From जैनकोष
अहो व्यसनविध्वस्तैर्लोक: पाखंडिभिर्वलात् ।
नीयते नरकं घोरं हिंसाशास्त्रोपदेशकै: ॥483॥दया बिना व्रतादि की व्यर्थता ― बड़े आश्चर्य के साथ आचार्यदेव कह रहे हैं कि देखा किसी ने दयामयी धर्म, किंतु विषयकषायों से पीड़ित पाखंडियों ने, हिंसा का उपदेश देने वाले पाखंडी विद्वानों ने शास्त्रों को रचकर जगत के जीवों को बलात्कार नरकों में ढकेला यह बड़े अनर्थ की बात है । धर्म दयामय है । व्यवहार में भी दया हो वहाँ धर्म है, परमार्थ से दया हो वहाँ धर्म है । दयाशून्य वृत्ति में धर्म नहीं । कोई साधु प्रकृति में तो निर्दय हो और अपना व्रत तप बड़ी सावधानी से पाले, जीवहिंसा भी न होने दे, पास के मुनि को, श्रावक को, किसी को भी उच्चरूप से न देखे यह दयाहीन की प्रकृति होती है । अपने को महंत माने, औरों की परवाह न करे; दूसरे की कैसी ही तकलीफ में रहे, हम ऊँचे हैं, हमारी बात इन सबको मानना चाहिए, हमें इतना ऊँचे रहना बैठना चाहिए, इनसे ऐसी भक्ति करायें, यह तो हमारा काम है, ये लोग तो इसी तरह हैं मानने वाले । इस प्रकार की जो एक दयाहीन की शैली का भाव है यह भाव रहे तब व्रत कितने ही ऊँचे करें तो वहाँ महत्व नहीं है । दयाहीन पुरुष बड़ी तपस्या भी करे तो उसकी दुर्गति है और दयालु पुरुष अगर व्रतरहित भी है तो दया का ऐसा माहात्म्य है कि उसकी सुगति होना, स्वर्ग की आशा होना आसान है ।
त्याग बिना गुजारा नहीं ― त्यागे बिना किसी का काम नहीं चलता । कोई कंजूसी कर ही नहीं सकता । कंजूसी करे तो मरे और रुले । भोजन भी कोई करता तो कंजूसी करता रहे, और भोजन को पेट से न निकाले तो क्या हाल होगा ॽ ग्रहण-ग्रहण तो कोई कर ही नहीं सकता । मान लो धन का संचय ही संचय करते रहे तो फायदा क्या होगा ? मरकर वहीं साँप हो जायेगा जिस जगह धन रहेगा । (हँसी) फायदा कुछ न होगा, बल्कि सारा बिगाड़ ही है ।