वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 487
From जैनकोष
नि:स्पृहत्वं महत्त्वं च नैराश्यं दुष्करं तप: ।
कायक्लेशश्च दानं च हिंसकानामपार्थकम् ॥487॥
हिंसक के व्यवहारिक धर्म की निष्फलता ― जो हिंसक पुरुष हैं उनमें व्यवहारिक कुछ भी धर्म किये जायें तो भी वे व्यर्थ हैं, अर्थात् निष्फल हैं । हिंसक पुरुषों में बाह्य पदार्थों की चाह भरी है तो मूल में तो हिंसा का परिणाम बसा हुआ है, अज्ञान और क्रूरता की बात पड़ी हुई है, बाहर में निष्प्रहता का श्रंगार कहाँ विराजेगा ॽ तो उसकी निष्प्रहता भी निष्फल है । हिंसक पुरुष का महत्त्व भी निष्फल है । किसी विद्या कला से या व्यवहार की चतुराई से लोक में महत्ता बढ़ जाय, किंतु जो क्रूर चित्त है अज्ञान अंधकार से दबा हुआ है ऐसे पुरुष का महत्त्व क्या महत्त्व है ॽ आज मायारूप लौकिक कुछ बात है पर यह वर्तमान में भी कुछ तत्त्व नहीं रखता और इसका भविष्यकाल में तो प्रभाव ही क्या रहेगा । तो हिंसक पुरुष का महत्त्व निष्फल है । हिंसक पुरुष में नैराश्य गुण भी आ जाय, आशा रहित हो, किसी की आशा न करे इतनी एक स्वतंत्र प्रकृति का होना यह भी गुण आ जाय, लेकिन जो हिंसक पुरुष है, मूल में क्रूरता बसी है उसका नैराश्य भी क्या फल देगा ॽ हिंसक पुरुष क्रूर चित्त पर दुस्तर तप भी करे जो भाव में हिंसा है और द्रव्य में भी हिंसा अहिंसा का कुछ विवेक जिसके नहीं है ऐसा यह साधुत्व ग्रहण करके बड़ी दुस्तर तपस्यावों को भी करे लेकिन वे उनके तप शांतिमार्ग के साधक नहीं हैं, निष्फल हैं, बड़े-बड़े कायक्लेश भी करे, कीली पर जो बैठ जाय, यों बड़े-बड़े कायक्लेश दिखाये और चित्त में कहो इतनी क्रूरता बसी हो कि जो कार्य कोई दुष्ट पुरुष कर सके उस कार्य को भी कर दे ।
क्रूर आशय वालों के ध्यानसिद्धि की अपात्रता ― तो ऐसे क्रूर चित्त वाले पुरुष बड़े-बड़े काय क्लेश भी करें तो भी वे निष्फल हैं, इसी प्रकार उनका दान भी है । क्रूर आशय बसा हुआ है और दान भी वह करे तो उसके उत्थान की दृष्टि से वे सब निष्फल हैं । मूल में चाहिए अहिंसा परिणाम । जैसे कोई पुरुष नाराज होकर गाली देकर किसी को कुछ दान करे तो लोक में भी उसका महत्त्व कुछ नहीं रहता है । जैसे कोई भिखारी आता है तो उससे कोई यों अपशब्द बोल दे कि जावो-जावो यहाँ से, तुमसे भगवान नाराज है तो हम क्यों तुम्हें कुछ दान देकर भगवान को नाराज करें ? चाहे किसी भी शब्द में कह लो, आशय में जिसके क्रूरता है उसके दान आदिक सब फल निष्फल हैं । सद्व्यवहार सत्चारित्र का होना चाहिए । इसके विरुद्ध व्यवहार हो तो एक शल्य बनती है और ध्यानसिद्धि की पात्रता नहीं रहती है ।