वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 488
From जैनकोष
कुलक्रमागता हिंसा कुलनाशाय कीर्तिता ।कृता च विघ्नशांत्यर्थं विघ्नौघायैव जायते ॥488॥
हिंसा से विघ्नों में अतिवृद्धि ― जो कुल क्रम से हिंसा चली आयी है वह हिंसा उस कुल के नाश करने के लिए कही गयी है । लोग तो यह सोचते हैं कि हिंसा तो हमारी कुल परंपरा से चली आयी है, इसे यदि हम छोड़ दें, न करें तो हमारा कुल मिट जायेगा, सो अपने कुल की रक्षा के लिए तो वे हिंसा में प्रवृत्ति करते हैं, मगर इस हिंसा से ही उनके कुल का नाश होता है । इस प्रकार कुछ लोग विघ्नों की शांति के लिए हिंसा करते हैं, तो वे हिंसा तो करते हैं विघ्नों की शांति के लिए, पर हिंसा तो स्वयं विघ्नरूप है, उससे तो और विघ्न सामने आते हैं । अनेक अवसर ऐसे आते हैं कि जिनमें मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, क्या करे, बुद्धि नहीं चलती, ध्यान नहीं टिकता, बड़े क्लेश अनुभव करता है ।
क्लेशों से मुक्ति का उपाय ज्ञानदृष्टि ― सब क्लेशों से क्षणिक समय को भी छुटकारा पाने के लिए सीधा उपाय यह है कि मैं सबसे न्यारा ज्ञानमात्र हूँ, इस ओर ही मैं रहूँ और सारे विघ्नों को दूर करुं, यह काम निरंतर भी करता रहूं तो निरंतर करने के लिए भी यह पड़ा हुआ है कि मैं अपने स्वरूप को देखूँ और इस मात्र ही अपने को अनुभव करता रहूँ । बाह्य में जो कुछ होता हो होने दो, वहाँ मेरा कुछ नहीं है । मेरा मात्र यह है मैं तत्त्व हूँ, मैं इसकी रखवाली के लिए हूँ । ऐसा अपने आपकी ओर क्षण भर को भी झुका दे, उस क्षण तो सारे विघ्न दूर हो गए । विघ्नों को यह ज्ञान ग्रहण करे तो विघ्न है अन्यथा बाह्यपदार्थ हैं, उनका परिणमन उनमें है । जैसे मान लो किसी समय पचासों विघ्न आ रहे हैं, जिसमें नफा सोचा था उसमें नफा नहीं दिख रहा, अमुक चीज में टोटा पड़ रहा, अमुक-अमुक रिश्तेदार हमसे बहुत रूठें हैं, मेरा अमुक बिगाड़ करने को तैयार है, मैं जैसा चाहता हूँ लोग वैसे चलते नहीं यों अनेक संकट दिमाग में बस रहे हों और जिससे यह दिल विमूढ़ सा बन गया हो, परेशानी अनुभव में आयी हो तो क्षणभर को एक मात्र उपाय तो कर लेवे कि जहाँ जो होता हो होने दो, उनका परिणमन उनमें है, उनसे मेरा क्या वास्ता ? मैं तो सबसे न्यारा शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ, आकाशवत् अमूर्त निर्लेप किंतु ज्ञानानंदघन स्वरूप हूँ । यह इतना ही रहता है, इसमें कुछ घटता बढ़ता नहीं, बाकी तो सब कल्पनाएँ हैं, ऐसा अपने आपकी दृष्टि में आ जाय कि जो होता हो हो और खूब हो, उससे मेरा कहीं कुछ नहीं बिगड़ता । मेरा मात्र मैं चैतन्यस्वरूप हूँ इस ओर थोड़ा ध्यान आये, विचार आये तो सारे विघ्न एक साथ दूर हो जाते हैं, फिर विकल्प आयें, विघ्न आयें तो अब उन विघ्नों में भी दम नहीं रही, कारण कि विघ्नरहित शुद्ध चैतन्यप्रकाशमात्र अपना एक बार अनुभव किया ना तो उसका स्मरण तो रहता ही है । उसके प्रताप से फिर विघ्नों में वह बल नहीं रहता । तो विघ्नशांति का उपाय तो यह है । इसे न करके बाह्य जीवों का सताना हिंसा करना, इससे तो और विघ्न होंगे । ये तो बिल्कुल उल्टा काम हैं । और जो हिंसक हैं उनके विघ्न कभी समाप्त नहीं होते । लेकिन मोह का ऐसा प्रताप कि जिस हिंसा के कारण विघ्न बढ़ रहे हैं उस ही हिंसा के लिए चित्त चाहता है ।
कुलक्रम के नाम पर हिंसा का प्रतिषेध ― तो किसी नाम भी पर कुल परंपरा में हिंसा चली आयी हो तो भी वह त्याज्य ही है । विघ्नों की शांति के लिए या किसी भी प्रयोजन से जो हिंसा की प्रवृत्ति की जा रही हो वे सब त्याज्य हैं । जिनका हिंसक जीवन है उनके धर्म की पात्रता नहीं जगती है । कोई कहे कि हमारे कुल में देव देवतादि का पूजन चला आ रहा है जिस देव का ठीक स्वरूप भी नहीं नजर आ रहा उसकी भी पूज्यता है, मगर जो बाप दादा करते चले आ रहे हैं वही हमें करना है । विवाह आदिक प्रथावों में कुछ थोड़ा बहुत एक दूसरे की पृथा में किसी न किसी बात में अंतर रहता है । कोई किसी नाम की भी मान्यता कर लेते हैं, तो ये प्रथायें क्या हैं, उसमें कुछ तत्त्व नजर आता हो तो उस पृथा को रखे, हमारे बाप दादा करते आये, करते आये तो यह तो नहीं कहा जा सकता कि हमारे कुल में पूर्वज सभी बड़े विवेकी ही थे । कुछ पृथा का दोष भी हो सकता है, अथवा जब यह पृथा चली हो तब इसका सही उद्देश्य क्या था उसे भूल गए हों और पृथा का रूप दूसरा बन गया हो, सभी बातों का सही विचार करके जिसमें अपनी धार्मिकता का प्रोत्साहन मिले वह करना कर्तव्य है । कोई कहे कि हमारे कुल में तो अमुक देव पूजते चले आ रहे, इसलिए उस देव को प्रसन्न करने के लिए हम लोग करते हैं – उससे हमारे कुल की वृद्धि होती है, ऐसा श्रद्धान करके करते तो हैं लोग हिंसा और उस हिंसा से कुल का नाश होता है ।
प्रथम तो यह विचारो कि आपका कुल क्या है परमार्थ से । लमैचू, अग्रवाल, खंडेलवाल आदि की बात नहीं कह रहे हैं । हमारा परमार्थ कुल है चैतन्य । तो हिंसा के भाव वाला व्यक्ति इस चैतन्य कुल का नाश कर डालता है । फिर यह पाप ऐसा भयंकर है कि इसके फल में लौकिक रूढ़ि का जो कुलबीज है वह भी खतम हो जाता है । तो हिंसा कुल के नास के लिए है, कुल की वृद्धि के लिए नहीं है, ऐसे ही हिंसा विघ्नों की वृद्धि के लिए है, विघ्नों के नास के लिए नहीं है । हिंसा से विघ्न ही होता, कल्याण नहीं हो सकता है ।