वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 489
From जैनकोष
सौख्यार्थे दु:खसंतानं मंगलार्थेऽप्यमंगलम् ।जीवितार्थे ध्रुवं मृत्युं कृता हिंसा प्रयच्छति ॥489॥
हिंसा से नीचता की प्राप्ति ― सुख के लिए की हुर्इ हिंसा दु:ख की संतान ही बन जाती है । हिंसा तो कर रहे हैं सुख के लिए पर वह दु:ख की परंपरा बनता है । मंगल के लिए की हुई हिंसा कुमंगल किया करती है । जिन पुरुषों का जीवन हिंसामय है उनका ही तो लोग नीच कुल कहते हैं । और उससे फिर यह बात बनी कि जिस बिरादरी में हिंसा की प्रचुरता है, जिनकी रूढ़ि मजबूत हो गयी, यह किसी अमुक बिरादरी के हैं, अमुक तो इनमें बड़ा पवित्र है, न हिंसा करता, न शराब आदिक का पान करता तो यह लीन हो जाना चाहिए ना । तो अव्यवस्था के भय से वह लीन नहीं किया जाता । क्योंकि, समूह की दृष्टि रखी गयी है । यद्यपि वह व्यक्तिगत अच्छा है । और अपने लाभ के लिए है लेकिन परंपरा में हिंसक, चांडाल आदिक कुल का कोई व्यक्ति पवित्र भी हो तब भी एक अव्यवस्था न बने, इसलिए वह लीन नहीं किया जाता है । तो नीचता हिंसा से स्पष्ट है । जहाँ हिंसा की प्रचुरता है वहाँ नीचता मानी गई है ।
अहिंसा ही सुखशांति का उपाय ― जीने के लिए लोग बलि करते हैं, हिंसा करते हैं, किंतु यह हिंसा मृत्यु को उत्पन्न करती है । चाहते तो यह कि मेरा जीवन बढ़ जायेगा । इस हिंसा से पर वह हिंसा ही इसे मृत्यु की ओर ले जाती है । ये सब बातें निश्चय से समझना । हिंसा जीव के अनर्थ के लिए है, अत: हिंसा से हटकर क्षमा आदिक गुणों से अपने को सुसज्जित करना चाहिए । देखो क्षमा, शांति गंभीरता इनमें उपयोग रहेगा तो उसमें बुद्धि विवेक तेज निराकुलता ये सब वृद्धि को प्राप्त होंगे । और इन गुणों की बात आये तो अपनी अशांति भी दूर हो जाती है । अपने को शांत और सुखी रखना हो तो इसके लिए भी कर्तव्य है कि हिंसा आदिक अवगुणों से बचें और दया क्षमा आदिक रूप अपनी प्रकृति बनायें ।