वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 492
From जैनकोष
निर्दयेन हि किं तेन श्रुतेनाचरणेन च ।यस्य स्वीकारमात्रेण जंतवो यांति दुर्गतिम् ॥492॥
पंचपापों के उपदेश देने वाले शास्त्र, शस्त्र तुल्य ― जो शास्त्र ऐसे हैं कि जिनमें दया का नाम भी नहीं है उन शास्त्रों से क्या लाभ ॽ जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह को प्रोत्साहन देते हैं वे शास्त्र हैं कि शस्त्र हैं ॽ इस जीव का बुरा करने के लिए, इस जीव को बरबाद करने के लिए वे शास्त्र शस्त्र का जैसा काम करते हैं । इन लोहे के शस्त्रों से भी जो इस जीव की बरबादी नहीं हो सकती वह बरबादी इन शास्त्रों के श्रद्धान से होती है जिनमें दया का नाम नहीं और जो पापों को प्रोत्साहन देते हैं । बहुत से मंत्र, बहुत सी विधियाँ पशुवध के लिए जिन शास्त्रों में उपदेश कर दिया गया हो वे शास्त्र शास्त्र नहीं है बल्कि शस्त्र हैं । और जिनमें झूठ बोलने में भी पाप न बताया गया हो और ऐसे अनेक उदाहरण किए गए हों कि जिनमें झूठ बोलना अच्छा बताया गया हो ऐसे शास्त्र शस्त्र की तरह हैं । चोरी में जहाँ ऐसा वर्णन किया गया किे भगवान का रूप बना बनाकर यह तो भगवान की लीला है चोरी करना, यह तो भगवान का स्वरूप है, इस प्रकार से चोरी का प्रोत्साहन देना जिन ग्रंथों में लिखा हो वे जीव के लिए क्या शस्त्र का काम न करेंगे ॽ ऐसे ही कुशील का जिन ग्रंथों में प्रोत्साहन किया गया है और जैसे अनेक लोग युक्तियाँ दे देकर मनुष्य का एक आवश्यक कर्तव्य बताते हैं, कितने ही लोग तो यह कहते कि वे संसार के दुश्मन हैं जो ब्रह्मचर्य पालते हैं क्योंकि संसार उन पर टिक नहीं सकता, संसार उनसे बढ़ेगा नहीं, कोई कहते हैं कि धर्मपालन करना तो एक दिमागीभूत है, यों अनेक पद्धतियों से जो व्यभिचार का प्रोत्साहन देते हैं ऐसे शास्त्र क्या शास्त्र है? वे तो इस जीव को दुर्गति में ढकेलने वाले शास्त्र है। तो जो शास्त्र मूर्छा परिग्रह आदिक ठाठबाट बढ़ायें उन शास्त्रों से जीव का क्या लाभ है, इसी प्रकार जो आचरण पाप से भरे हुए हैं उन आचरणों से जीव का क्या लाभ है? ऐसे शास्त्र और आचरण के हाँ करने मात्र से जीव दुर्गति को चला जाता है ।
हिंसावर्द्धक शास्त्रों की अनुमोदना मात्र से पापबंध ― खोटे शास्त्रों को ये शास्त्र हैं, प्रमाणरूप हैं ऐसा कहने मात्र से ही पाप कर्मों का बंध हो जाता । जैसे मानो कोई पुरुष ईष्या से किसी के घर में गोदाम में किसी जगह आग लगा दे तो आप अंदाज कर सकते हैं कि ऐसे दुष्ट पुरुष ने कितना बड़ा पाप किया ॽ जहाँ बहुत नुकसान हो जाय, घर के लोग बड़े दु:खी हो जायें, असहाय हो जाये, निराधार हो जायें ऐसा कर्तव्य कोई करे तो आप अंदाज कर सकते कि उसने कितना तीव्र पाप किया । और कोई इतना करेगा भी नहीं किंतु ऐसा करने का संकल्प ठान ले, मैं अमुक को बरबाद कर दूँगा, अमुक के घर आग लगा दूँगा ऐसा दृढ़ संकल्प ठान ले तो भी उसने कितना पाप किया ॽ उतना ही पाप उसने किया । तो संकल्प हो जाना किसी की ठगाई के लिए उसमें ही पाप का बंध तुरंत हो जाता है । मिला क्या उसे ॽ कुछ नहीं, खोया सब कुछ तो अपने परिणामों को टटोलिए ।
अपध्यान से जीव की दुर्गति ― हम अपने अंतरंग में दूसरों के लिए कितना विरोधी रहते हैं, घातक रहते हैं, दूसरे को न सुहाना, घृणा करना, उसे विरोधी मानना, उसके खिलाफ वातावरण की कोशिश करना, उसे नीच देखना आदिक कितनी बातें ऐसी गंदी है कि जिससे खुद का लाभ कुछ नहीं है और व्यर्थ ही पाप का बंध कर रहा है । अनर्थ दंडों में जो 5 प्रकार बताये हैं उनमें से अपध्यान नाम का दंड कितना भयंकर है । स्वयंभूरमण समुद्र में तंदुलमस्त रहता है । वह है बहुत छोटा जानवर किंतु है संज्ञीपंचेंद्रिय । जब वह यह देखता है कि यह राघवमत्स इतनी बड़ी काय वाला मुँह पसारे पड़ा है जिसके मुँह में हजारों मछलियाँ लोट रही हैं, खेल कूद रहीं हैं, तो तंदुलमत्स सोचता है कि यह बड़ा मूर्ख है, यदि मैं इसकी जगह होता तो एक भी मछली को न बचने देता, सबको खा जाता । इतने संकल्पमात्र से वह इतना पाप का बंध कर लेता है कि 7 वें नरक में उत्पन्न होता है । तो अपध्यान बहुत गंदी चीज है, इससे आत्मा की उन्नति नहीं होती । एक ही बार जब जीवन में निभा लें कि हम अपध्यान न करेंगे, किसी का खोटा विचार न करेंगे तो उसकी आध्यात्मिक बहुत बड़ी उन्नति हो सकती है । ऐसे शास्त्रों से, ऐसे अक्षरों से क्या लाभ है जिसमें दया का नाम नहीं है, ऐसे शास्त्रों के हाँ भरने मात्र से ऐसे आचरणों को अंगीकार करने मात्र से जीव दुर्गति में प्रवेश करता है ।