वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 494
From जैनकोष
चरुमंत्रौषधानांच हेतोरन्यस्य वा क्वचित् ।कृता सती नरैर्हिंसा पातयत्यविलंबितं ॥494॥
पापों का निग्रह किये बिना आनंद नहीं ― देवतावों के लिए नैवैद्य के नाम पर, मंत्र के नाम पर या अन्य किसी भी कार्य के लिए मनुष्य के द्वारा की गई हिंसा नियम से शीघ्र ही नरक में ढकेल देती है । इस का वर्णन पहिले भी आया और बराबर कह भी रहे हैं । तो इसमें ऐसा सचेत किया गया है कि हिंसा सदैव इस जीव को बरबाद करने वाली चीज है । बल्कि धर्म के नाम पर हिंसा से तो घोर पाप का बंध होता है । धर्म इस जीव के उद्धार के लिए है और उसके धर्म का ऐसा स्वरूप बना लीजिए कि वह पतन का कारण बने तो फिर उद्धार का उपाय और रहा क्या ॽ जैसे लोग कहते हैं कि अन्य स्थानों में पाप बन जाय तो धर्मस्थान में उस पाप के नाश का उपाय किया जाता है और धर्मस्थान पर ही कोई पाप करने लगे तो फिर उसके संकट हरने का और क्या उपाय है ॽ जो पुरुष हिंसाभाव से दूर रहते हैं, स्व और परदया के भाव से भरे हुए होते हैं उनमें ऐसा ज्ञान जगता है कि ऐसी पात्रता होती है कि जो शुद्ध तत्त्व है, जिसके ध्यान से जीव के संकट दूर होते हैं उसके ध्यान की सिद्धि हो जाय इसका अधिकारी बनता है वह दयालु पुरुष । दयालु पुरुष धर्म की साधना, ध्यान की साधना में सफल होता है । वर्तमान प्रसन्नता और भावी आनंद पाने के लिए यह आवश्यक है कि अपने जीवन में दयापूर्ण बनें ।