वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 503
From जैनकोष
आत्मैवोत्क्षिप्य तेनाशु प्रक्षिप्त: श्वभ्रसागरे ।स्नेहभ्रमभयेनाѕपि येन हिंसा समर्थिता ॥503॥
बुरे चिंतन से नरक वेदना ― जिस पुरुष ने किसी की प्रीति के भ्रम से अथवा किसी दूसरे भय से हिंसा का समर्थन किया, इतनी ही बात रखी कि हिंसा करना बुरा नहीं है तो ऐसा समझिये कि उसने अपने आत्मा को उसी समय नरकरूपी समुद्र में डाल दिया । प्रसिद्ध बात है । राजा वसु ने पर्वत की हिंसा के प्रस्ताव का इन ही शब्दों से तो समर्थन किया था कि जो पर्वत कहता है वह ठीक है । इसका फल क्या हुआ कि वसु को नरक पहुँचाया, जिसकी सत्यता का ऐसा यश था कि लोग देखते थे कि इसका सिहांसन भूमि से भी अधर रहता है । या ऐसा कुछ रहा हो कि स्फटिक मणि के पावे लगे हों जिससे सिहांसन अधर दिखता हो, लेकिन क्या हुआ कि वह सिंहासन टूट गया और वसु ने मरण करके नरक में जन्म लिया । हिंसा के समर्थन का यह फल है । जो जीव सबका भला विचारता है उस पुरुष पर विपदायें नहीं आतीं । जो किसी का बुरा विचारता ही नहीं उसका कोई क्या दुश्मन होगा ॽ बुरा विचारने से चाहे वह मायाचार के कारण दूसरों की निगाह में बुरा न भी साबित हो रहा हो लेकिन कर्मबंध को कौन रोकेगा ॽ वहाँ तो मायाचार नहीं चलता । जैसा जो परिणाम करे उसे उस ही प्रकार से बंध हो जायेगा ।स्वच्छ हृदय बनाने से संकटों की समाप्ति ― किसी भी जीव का अनिष्ट न विचारे ऐसा स्वच्छ हृदय बने उसे अनुपम वैभव प्राप्त हो गया समझिये । सबसे बड़ा वैभव तो यही है कि उसकी दृष्टि में सम्यग्ज्ञान बसा और सबके प्रति उदारता का भाव जगा । ऐसा उत्कृष्ट वैभवशाली पुरुष संसार में किसी भी प्रकार से संकटों को प्राप्त नहीं होता और स्वर्गादिक लक्ष्मी का भोगकर निकट काल में ही मनुष्य जन्म लेकर वह मुक्ति को प्राप्त करता है । हमारा जीवन दया से, अहिंसा से, न्याय से भरा हुआ होना चाहिए, ऐसा यत्न करें, इस ही में अपना कल्याण है ।