वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 505
From जैनकोष
बलिभिर्दुबलस्यात्र क्रियते य: पराभव: ।परलोके स तैस्तस्मादनंत: प्रविषहृते ॥505॥
पुण्यबल के दुर्पयोग का निषेध ― हे कल्याण चाहने वाले पुरुष ! देवयोग से पुण्यबल से यदि धन का बल मिला है, शरीर का बल मिला है, बुद्धि का बल मिला है तो इस बल का ऐसा विश्वास न रखें कि इस धन के हम ठेकेदार ही हैं । यह बल हमें सदा ही मिलता रहेगा । यह तो पूर्वकृत पुण्य का फल है । जो धनबल मिला, शरीरबल मिला या लौकिक इज्जत मिली, नेत्रत्व मिला, इसका यह विश्वास नहीं है कि यह सदा रहेगा । अपनी करनी इस ही भव में बिगड़ जाय तो इस ही भव में यश नेतागिरी विश्वास प्रतिष्ठा और सभी बल खतम हो जाते हैं । यदि कोई बल पाया है तो बल पाकर निर्बलों पर अन्याय मत कर । निर्बलों पर अन्याय करने में यह कुफल होगा कि रहा सहा बल भी खतम होगा और आगे खुद निर्बल होकर दूसरों के द्वारा सताये जायेंगे । जो बलवान पुरुष इस लोक में निर्बल को पराभव करता है या सताता है परलोक में उससे भी अनंतगुना पराभव सहता है । बल मिला है तो किसी का तिरस्कार न करें, किसी पर अन्याय न करें ।
क्रूरता का फल खोटे कर्मबंधन व दुर्गति ― कभी चित्त में क्रूरता आती है तो उससे बहुत खोटे कर्मों का बंध होता है और भविष्य अंधेरे में दुर्गतियों मे बिताना पड़ता है । जो लोग शिकार खेलते हैं, माँसभक्षण करते हैं, हिंसा करते हैं वे तो निर्बलों को निशंक होकर सताते ही रहते हैं । भला जो हिरण आदिक जानवर घास खाकर अपना पेट भरते हैं ये मुर्गी आदिक जो किसी पुरुष को किसी को सताना जानते ही नहीं हैं, अथवा कैसा ही कोई जीव हो, इन निरपराध जीवों को केवल एक जिह्वा के लंपटी बनकर मार डालते हैं, भून देते हैं, उनकी क्या दुर्गति होती होगी । एक बार किसी ने यह पूछा कि इतनी मुर्गियाँ मरती फिर भी मुर्गियाँ बहुत-बहुत पैदा होती रहती हैं, तो इनके मरने से तो यह बढ़ान है । इनके मारने से नुकसान क्या किया ॽ तो इसका उत्तर यह है कि जिन्हें मुर्गी बनना है वे तो बनते हैं, पर मारने वाले जितने हैं वे मरकर मुर्गी बनते ही हैं, इसलिए मुर्गियाँ ज्यादा बढ़ गयीं । होता भी प्राय: ऐसा है । जो पुरुष जिस जीव को सताता है, जिसके प्राण हरता है प्राय: करके वह हिंसक तो बनता है उस प्रकार का जीव और वह बनता है बलवान हिंसक कोई जीव । तो हिंसा करने वाले लोग मर कर ऐसा जन्म लेते हैं कि जहाँ उनकी हिंसा हो ।
जीवन में नम्रता लाने की शिक्षा ― अपने जीवन को इतना नम्र बनायें, इतना कोमल बनायें कि दूसरे प्राणियों के सताने का भाव न आये, इतनी हिम्मत बनायें कि किसी प्रसंग में खुद का चित्त दुखित होता है तो अपनी जितनी शक्ति है उस शक्ति को संभालकर ऐसी कोई क्रिया चेष्टा न करें जिससे दूसरों का दिल दु:ख जाय । कारण एक और भी है । जो पुरुष दूसरों का दिल दु:खाने, सताने का भाव रखता है वह उसी समय दु:खित हो जाता है । दूसरों को दु:खी करने की बात मन में आए तो उस मन में आने से ही दु:खी होने लगता है। कोई पुरुष किसी की निंदा करेगा दुर्वचन बोलेगा तो दुर्वचन बोलने से पहिले दिल में बड़ी हिम्मत बनानी पड़ती है और दु:खित होकर कष्ट मानकर निंदा करनी पड़ती है । कोई पुरुष किसी की प्रशंसा करने खड़ा हो जाय तो वह बड़ा निर्दय होकर प्रशंसा करता है । इससे ही अंदाज कर लो कि जब पहिले अपने दिल को बहुत दु:खी कर लेना पड़ता है तब दूसरे को दु:खी करने का प्रयत्न कर सकते हैं । तो स्वयं दु:खी हो गए और फिर जिसे दु:खी किया वह भी बदला लेने का बहुत-बहुत प्रयत्न करेगा और कभी कुछ छोटे-छोटे लोगों से भी बड़ी-बड़ी आपत्ति सामने आ जाती है । जिसके प्रति हम आज यह सोचते हैं कि यह तो न कुछ चीज है, तुच्छ पुरुष है, यह मुझे क्या सतायेगा ॽ यह मेरा क्या करेगा ॽ लेकिन चाहे कितना ही कमजोर कोई हो, जो निरंतर यत्न और भावना बनेगी बदला लेने की तो कुछ ऐसे साधन जुटा देंगे कि खुद अथवा किसी दूसरे बलवान के द्वारा उसका बदला चुका लेगा । दूसरे के सताने का परिणाम रौद्रध्यान है, इसमें बहुत ही अशुभ कर्मों का उदय होता है ।