वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 504
From जैनकोष
शूलचक्रासिकोदंडैरुद्युक्ता: सत्त्वखंडने ।येऽधमास्तेऽपि निस्त्रिंशैर्देवत्वेन प्रकल्पिता: ॥504॥
देवों की प्रवृत्ति हिंसा में नहीं ― जो देव जातिरूप से माने गए भैरव चंडी काली आदिक देवी देवता त्रिसूल चक्र तलवार मनुष्य आदिक शास्त्रों से जीवों का घात करने में उद्यमी रहा करते हैं उन्हें भी निर्दयपुरुष देवता मानकर उनकी स्थापना करते हैं । जो जीवों की हिंसा करने में प्रवृत्ति करें वह देव काहे का है । परंतु निर्दयी पुरुष ऐसे निर्दय देव को ही सोचते हैं, वे ही उन्हें इष्ट लगते हैं । मनुष्य का जीवन अहिंसा से भरपूर होना चाहिए तब ही मनुष्य को शांति प्राप्त हो सकती है और यह अहिंसा इतनी उत्कृष्टरूप में होनी चाहिए कि जहाँ देवी देवतावों के नाम पर भी हिंसा का काम न हो, वे देवी देवतावों की यादगार और लोकव्यवहार कहाँ से शुरू हुआ है ॽ मूल में बात तो यह थी कि कुछ यक्ष यक्षणी तीर्थंकरों की रक्षा के लिए उनके विहार कि लिए उन्हें आराम देने के लिए रहा करते थे । वे जैनधर्म के सेवक देव थे, तीर्थंकरों की हुकूमत में रहा करते थे । तो जो बड़े पुरुषों के समीप रहें ऐेसे लोग भी मान्यता वाले हो जाया करते हैं, फिर तो वे व्यंतरदेव ही तो थे । लोग व्यंतरों की ओर भी दृष्टि देने लगे और कुछ समय बाद और और नाम वाले भी व्यंतर देव माने जाने लगे और उनकी ही पूजा चलने लगी ।माँसभक्षियों द्वारा बलि की पृथा ― दूसरी बात किसी समय जब कि बड़े-बड़े समझदार लोग भी माँस खाने के इच्छुक हो गए थे किंतु उनकी प्रसिद्धि धर्मात्मा, पंडित ऐसे ही रूप में थे, तो धर्मात्मा का भेष रखकर अथवा विद्वता की छाप रखकर माँस आदिक खाना, शिकार खेलना, इनकी ओर उनकी रुचि जाने लगी, तब सोच विचारकर एक धर्म का यक्ष का बलिक रूप रख दिया कि देवी देवताओं के समक्ष बलि करने से ये प्रसन्न होते हैं जो ऐसा रूप बना दिया जिससे अब उनके माँस खाने का भी शौक चलने लगता है और लोग उन्हें धर्मात्मा पंडित भी कहते रहें । यों अनेक कारणों से फिर और-और कारण छूट-छूटकर यह देवी देवताओं को बलि चढ़ाने की पृथा चली । वे मोही अज्ञानीजन हैं जिन्हें आत्मस्वरूप का कुछ बोध ही नहीं है, बल्कि साधारणतया लोक सभ्यता भी नहीं है, वह पुरुष देवी देवताओं को बलि किया करता है । तो जो निर्दय होगा वह ही निर्दय देवों को इष्ट मानता है ।