वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 507
From जैनकोष
स्वपुत्रपौत्रसंतानं वर्द्धयंत्यादरैर्जना: ।व्यापादयंति वान्येषामत्र हेतुर्न बुद्धयते ॥
अज्ञान से भ्रांति ― अज्ञान का माहात्म्य तो देखिये कि लोग अपने पौत्रादिक संतानों में बड़ा श्रम करके पालते हैं, पर दूसरे की संतान का घात करते हैं । इसमें और क्या है हेतु सिवाय ज्ञान के ॽ मान लो मनुष्य को नहीं मार रहे हैं, पशुओं को मार रहे हैं तो क्या वे पशुवों के संतान मनुष्यों के संतान जैसे नहीं हैं ॽ अपने ही घर में उत्पन्न हुए संतान का तो पालन-पोषण करें और इन पशुवों की संतान का हनन करें तो यह कितना बड़ा अज्ञान है ॽ है कौन किसका ॽ पुत्र, स्त्री, मित्रादिक किसी के वास्तव में हैं क्या ॽ वे भी जीव हैं, कहीं थोड़ी देर को समागम हो गया, पर अंत में होगा क्या ॽ
तत्तवज्ञानी के आनंद की संस्थिति ― जो पुरुष संयोग में सुख मानते हैं वे पुरुष कितना दु:खी होंगे वियोग के समय ॽ सो इसको सभी लोग अनुभव करते हैं । गृहस्थी में और घटनाएँ ही क्या होती हैं ॽ विवाह हुए, बच्चे हुए, कोर्इ मरा, कोई जिया, यही लगा रहता है । कभी संयोग हुआ तो कभी वियोग होगा । अगर संयोग में हर्ष माना तो वियोग के समय दु:खी होना पड़ेगा । तत्त्वज्ञान सम्हालो तो संयोग के काल में उस पदार्थ से कुछ सुख नहीं मिल रहा । सुख तो कल्पना की बात है । वास्तविक आनंद तो तत्त्वज्ञान से भरा होना है ।
आत्मा की निधि ज्ञान ― ज्ञान की रुचि करो । लौकिक वैभव के दीवाने न बन कर ज्ञानार्जन के दीवाने बनो । सारा घर सब कुछ इस ज्ञान के दीवानेपन में रंग जाय उसका अनुपम आनंद है । यह मेरा है, यह पराया है, इस प्रकार जो अज्ञान वासना का विकल्प है यह तो संसार में रुलते रहने का साधन है । जब देह तक भी अपना नहीं है तो भला और अपना क्या हो सकता है ॽ जरा गंभीरता से विचार तो करिये । जैसे धनरक्षा करते-करते भी हजारों लाखों का अपव्यय लूटकर विनाश हो ही जाता है तो रक्षा करने के विकल्प से हुआ क्या ॽ ऐसे ही परिजन की रक्षा का श्रम करते-करते भी आखिर उनके विकार हो ही जाता है । तो विकल्प और शक्ति से भी वहाँ क्या लाभ उठाया ॽ अपने आप की सम्हाल करें और अपने स्वरूप का सही परिचय पाकर यही मात्र मैं हूँ, और बस ज्ञातादृष्टा रहना यही मेरा काम है । जब ज्ञान मेरा स्वरूप है तो जानना देखना तो मिट नहीं सकता ना । तो जानना देखना यही मेरा काम है, इसके अतिरिक्त न मेरा कुछ काम है और न अन्यरूप मैं हूँ । इस प्रकार के एकत्व का अपना परिचय पायें और इस ओर ही अपने आपको लगायें ।
पुद्गल के लगाव में बिगाड़ ― यदि इन जड़ पुद्गल वैभव इनके ही पीछे रमे रहे, लगे रहे तो इसमें कुछ तत्त्व की बात प्राप्त न होगी । क्या है इसका ॽ लोग सोचते हैं कि खूब कमाकर रख जावें तो हमारे लड़के सुखी रहेंगे । मरने के बाद फिर किसका कौन लड़का है ॽ यह तो सब जगत का ठाठ है, संयोग है । जो हो गया हो गया । तो मोह ममता का बहुत बुरा परिणाम भोगना पड़ता है, अपने को सम्हालें, मोह ममता से अपने को हटायें, ज्ञान में ही अपना उपयोग बनायें, यह है वास्तविक जिंदगी । ऐसा करने के लिए अधिक से अधिक सत्संग जुटाने का यत्न कीजिए । उसके लिए तन, मन, धन, वचन से दूसरों का सत्कार आदिक करना पड़े तो करें, मगर अधिक से अधिक सत्संग समागम जुटाने का यत्न करें । दो बातें निर्मोहता की वस्तुस्वरूप की अपने आपके चित्त में पड़ती रहें तो उससे आत्मा की बड़ी सम्हाल होती है, सत्पथ का भान रहता है । अपना अहिंसक जीवन बनायें और ज्ञानवासना से अपने को आनंदमय रखें, यही एक लाभ की बात है ।