वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 513
From जैनकोष
संकल्पाच्छालिमत्स्योऽपि स्वयंभूरमणार्णवे ।महामत्स्याशुभेन स्वं नियोज्य नरकं गत: ॥513॥
आत्मा के ध्यान में आत्मा की रक्षा ― आत्मा की रक्षा आत्मा के ध्यान में हैं । जब आत्मा को छोड़कर किसी अन्य वस्तु का ध्यान होता है उस समय आकुलता, चिंता, विह्वलता तो उत्पन्न होती ही है, साथ ही ऐसे कर्मों का बंध होता है और संस्कार बनते हैं कि भविष्य में भी दु:ख पाता रहेगा । इस कारण आत्मा को शरण अपने आत्मस्वरूप का ध्यान है । जब कभी कोई आकुलता उत्पन्न हो तो ऐसी सद्बुद्धि जगायें जिससे सबसे न्यारे अपना आत्मतत्त्व ज्ञानमात्र देखने की कुछ खबर बनी रहे । जब यह जीव यह चिंतन रखता है कि मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानज्योतिस्वरूप हूँ, मकान वैभव की तो बात क्या, यह देह भी मेरा स्वरूप नहीं है । यह जड़ है, मैं चेतन हूँ, यह विनाशीक है, मैं अविनाशी हूँ । जब ज्ञानस्वरूप निज अंतस्तत्त्व की सुध होती है उस समय सारे विकल्प भार समस्त क्लेश दूर हो जाते हैं तब आत्मा का शरण एक अपने आत्मस्वरूप का ध्यान है । वह ध्यान कैसे बने ॽ उसका उपाय इस ग्रंथ में बताया गया है । ध्यान के मुख्य अंग हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । जिन अंगों के बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती । उसमें सम्यक्चारित्र के प्रकरण में अहिंसाव्रत का वर्णन चल रहा है ।
हिंसा-अहिंसा का लक्षण ― अहिंसा नाम है केवलज्ञातादृष्टा रहने की परिणति का । जो केवल वस्तुस्वरूप का जाननहार रहता है । उसमें कोई विकार न होने से आत्मा की अहिंसा हो रही है अर्थात् रक्षा है और जब यह आत्मा का अहिंसाभाव नहीं रहता, रागद्वेष में प्रवृत्ति बढ़ती है तब आत्मा की हिंसा हो जाती है और उसके परिणाम में बाहर में यह जीवघात का प्रयत्न करता है । कोई पुरुष जीवघात कर चुका हो, उसके भी अशुभ संकल्प हुआ, अतएव पाप का बंध है और कोई पुरुष जीवघात तो न कर रहा हो किंतु जिसने जीवघात किया है ऐसे हिंसक की अनुमोदना कर रहा हो तो वह भी उतने ही पापों का बंध कर रहा है, क्यों कि पापों का बंध परिणाम से है ।
संकल्प मात्र से हिंसा का बंध ― जिसने जीववध किया है उसका भी परिणाम अशुभ हुआ और जिसने उस बंधक की अनुमोदना की है उसका भी परिणाम अशुभ हुआ है । देखो स्वयंभूरमण समुद्र में दो मत्स रहते ― एक महामत्स और एक साली अर्थात् तंदुल मत्स । महामत्स बड़ी लंबी चौड़ी अवगाहना का है । एक हजार योजन लंबा, 500 योजन चौड़ा और 250 योजन मोटा; इतनी बड़ी अवगाहना का वह महामत्स है । इतनी लंबी चौड़ी काय वाला महामत्स अपने मुहँ को फैलाये रहता है । तो उस फैली हुई जगह में जितनी जगह समाये वह जगह एक असमानसा है । उसके मुँह में अनेक मत्स आते जाते खेलते रहते हैं । उन मत्सों को पता नहीं पड़ता कि कहाँ मुख है, कितनी बड़ी अवगाहना का है । लेकिन वही एक तंदुलमत्स (साली मत्स) यह विचार करता है कि यदि इस महामत्स की जगह में मैं होता तो एक भी मछली को बचने न देता । ऐसा परिणाम करने से यह सालीमत्स सप्तम नरक में जाता है । तो इससे यह निर्णय कीजिए कि कोई हिंसा करे, उसकी जो अनुमोदना करे तो उस अनुमोदना में भी संकल्प मात्र से उसी के समान पाप होने का कारण बनता है । तो जिसका परिणाम रागद्वेष से मलिन है और इसी कारण जो अपने आपके प्रभु की हिंसा कर रहा है ऐसा हिंसक पुरुष आत्मा का ध्यान क्या करेगा । जो आत्मा का ध्यान नहीं कर सकता उसके व्याकुलता संसारभ्रमण सभी अनर्थ उसके लगे रहते हैं ।