वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 515
From जैनकोष
दूयते यस्तृणेनापि स्वशरीरे कदर्थिते ।स निर्दय: परस्यांगे कथं शस्त्रं निपातयेत् ॥515॥
पर्यायबुद्धि का महाअज्ञान ― मनुष्य के शरीर में एक तिनका भी चुभ जाय, काँटे की बात तो दूर रहे, अगर भूसे का कोई तृण चुभ जाय तो उसमें वह अपने को दु:खी मानता है । तो जो पुरुष अपने में एक तृण के चुभ जाने में दु:ख महसूस करता है वह पुरुष दूसरे प्राणी के शरीर पर निर्दय होकर शस्त्र को मारे तो यह एक बड़ी अनर्थ की बात है । जरा भी दूसरे जीवों के प्राणों का इसने अनुमान नहीं किया, इसकी आत्मत्व पर दृष्टि नहीं है, जीव स्वरूप पर इसकी दृष्टि नहीं गई है । और, एक शरीर को ही इसने समूचा आत्मा समझकर इस शरीर के पोषण में ही, इस पर्यायबुद्धि के पोषण में ही वह लग रहा है । महाअज्ञानी जीव है । धन्य हैं वे ज्ञानी पुरुष जिनके उपयोग में ज्ञानप्रकाश का महत्व बना रहता है ।
बाह्य समागमों से आत्मा की असिद्धि ― इस लोक में जितने भी जो कुछ समागम हैं, कोई समागम सारभूत नहीं है । यह सारा समागम कुपथ का कारण है, दुर्गति का कारण है, अज्ञान अंधकार में बढ़ा देने का कारण है, किसी समागम से क्या लाभ है ॽ मान लो लौकिक विभूति के कारण दो चार हजार पुरुषों ने मुख से यह कह दिया कि यह बड़ा है तो भला बतलावो तो सही कि प्रथम तो वे पुरुष ही मायारूप हैं, विनाशीक हैं, संसार में जन्म मरण का चक्कर लगाते हैं, खुद ही दु:खी हैं, असार हैं और फिर उनमें से किसी ने अपने स्वार्थ के कारण अपने कषायभाव से कोई शब्द अनुकूल बोल दिया तो उससे इस आत्मा को क्या सिद्धि मिलती है ॽ
स्वरूपदृष्टि के साहस से जीव का गुजारा ― साहस इतना हो कि कोई जगत का प्राणी मुझे जाने अथवा न जाने, मैं अपने आपके उपयोग में केवलज्ञानमात्र अपने आपका स्वरूप बना रहूँ तो यही मेरा सर्वस्व कल्याण है । जिन भगवान की मूर्ति की स्थापना करके हम पूजते हैं उन भगवान ने साधु अवस्था में जो आत्मध्यान किया था उस आत्मध्यान के समय उनके कोई विकल्प था क्या ॽ जगत के प्राणी मनुष्य अनेकों लाखों उनकी पूजा करते थे, पर ध्यान के समय किसी की ओर उनकी जरा भी दृष्टि न थी । वे निर्विकल्प होकर अपने आपके प्रकाश का अनुभव पाया करते थे । इस निर्विकल्प अनुभव के कारण उनको वह आत्मसमृद्धि प्रकट हुई जिसका स्मरण करके हम भव-भव के बाँधे हुए पापों का विध्वंस कर लेते हैं । कर्तव्य अपना यह है कि किसी भी प्रकार पर के विकल्प तोड़ कर केवल अपने आपके स्वरूप का उपयोग बनाये रहें, ऐसा किये बिना इस आत्मा का गुजारा नहीं हो सकता ।
परमार्थिक अहिंसा ही शरण ― आत्मा की भलाई केवल आत्मध्यान में है, और आत्मध्यानी बनने के लिए हमारी चर्या, हमारा जीवन हमारा व्यवहार ऐसा कोमल हो और अहिंसापूर्ण हो, अपने आपका अधिकाधिक ध्यान रख सकें ऐसी ज्ञानदृष्टि हो तो यह हम आपके लिए बहुत शरणभूत उपाय रहेगा । इसके विरुद्ध जो निर्दय पुरुष हैं जो अपने शरीर में तृण चुभे तो भी दु:खी होते हैं किंतु दूसरे प्राणी के शरीर पर निर्दय होकर शस्त्र प्रहार करें वे कितना अज्ञान में डूबे हैं, वे कितने जन्म मरण धारण करते रहेंगे इसका अंदाज लगा लीजिए, वे दु:खी पुरुष हैं । अपना जीवन अहिंसामय बनायें तो भगवान का जो-जो कुछ उपदेश है वह उपदेश हम आपमें उतर सकता है । सत्य बात तो यह है कि अपने को केवल एकाकी अनुभव करें, देह भी मेरा साथी नहीं, वैभव तो साथी होगा ही क्या ॽ मुझमें उत्पन्न होने वाले राग द्वेष विषय कषाय ये भी मेरे साथी नहीं हैं । ये विकल्प भी मुझे दु:खी करने के लिए उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर तुरंत नष्ट हो जाते हैं और मुझे दु:ख की परंपरा में छोड़ देते हैं । मेरा शरण तो मेरा सहज सिद्ध स्वरूप चैतन्यस्वभाव के उपयोग बनाये रहने में है । यही है पारमार्थिक अहिंसा ।